कात्यायन ३५१ हहिका नियम रहते भी पिउद्दिष्ट कार्यमें अग्नि प्रतिनिधि द्रव्य द्वारा प्रारम्भं किया नहीं जाता; -सन्दीपनमन्त्रका झास आत इमकाष्टके हास इतना ही उभयका भेदकथन एवं ज्योतिष्टोम दीक्षित- विधिका प्रभाव, अग्निप्रणयनके लिये पूर्वोक्त इध्म गपके शरीर धारणार्थ पयःपान प्रभृति व्रतमें भी काष्ठको संख्या अपेक्षा अधिकसंख्यक इनकी प्रतिनिधि विधान है। इस प्रतिनिधिमें अनेक आवश्यकता, 'इ कापशयज्ञमें २८ हाथ परिमित विशेष नियम निर्दिष्ट हैं। ट्यके प्रभावमें तत्सदृश पूर्वोक्त काठ द्वारा इन करने का विधि और यह अन्य द्रव्यको कल्पना की जाती है। दैवात् वह द्रव्य इध्म तीन प्रकार संनहन नामक बन्धनविशेष हारा भी नष्ट होनेसे उसकी भांति अन्य प्रतिनिधि न मिलते वांधनेको प्रणाली, अमावश्या और पौर्णमासीको प्रधान द्रव्य जातीय द्रव्य द्वारा प्रतिनिधि कल्पना करना वेदकरण, सूत्रोक 'पाङ शब्दका पभिविधि तथा चाहिये। जैसे ब्रोहिक पभावमें नौवार द्वारा कार्य प्रतिमा अर्थ, सर्वविध कर्ममें अनुरक्त होते भी गाई भारम्भ करते देवात् जो नीवार नष्ट हो गया, तो पत्यक अनुसार आइवनीय तथा दक्षिणाग्निमें उद्वारकी नौवार जातीय अन्य द्रश्यको कल्पना न कर ब्रीहिको ही भावश्यकता, किन्तु अन्य कार्यके लिये उद्धार होते पीछे कल्पना करना पड़ेगी। इसी प्रकार जहां कृष्ण दूसरे भागन्तुक कार्यके लिये उहारको अनावश्यकता, व्रीहिका प्रभाव होगा, वहां उसका प्रतिनिधि शक्त (क्योंकि जिस कार्यके लिये उहार किया जाता, ब्रोहि माना जायेगा। किन्तु कण नीवारको कल्पना वह समाप्त होते अग्नि फिर लौकिकत्वको पहुँचता कर नहीं सकते। फिर जहां पुंवन्सयुक्त गोके दुध द्वारा है। इसीसे दर्श प्रभृत्ति कार्यमें उद्धृत अग्नि पग्नि विधान है, वहां उसके न मिलनेसे स्त्रीवत्स युक्त गोका होत होम सम्पादित होता है। किन्तु बौकिक हो दुग्ध प्रदान करना चाहिये। किन्तु वन्स युक्ता मेषों जानसे फिर इस पग्निमें पाहवनादि कार्य कर नहीं प्रभृतिका दुग्ध प्रदान करनेसे काम न चलेगा। इसी सकते।) जहां पौर्णमासादि कार्य में पृथक् तंत्रोस बहु प्रकार समुदाय द्रव्य का प्रतिनिधि विवेचना करना विध यनका नियम होता, वहां प्रतिया में प्रयक उचित है। ५म कण्डिका श्रुतिपाठ, मनपाठ एवं 'पृथक् अग्नि उहार कर सम्पादन करने का नियम, अर्थसिद्धिके क्रमानुसार पदार्थ के अनुष्ठानका क्रम खदिरकाष्ठनिर्मित द्रव्यादि कहीं अनुल होते भी वहा. है। नहाँ पाठकम और अर्थसिविक्रम उभयका उसको क व्यता, सुत्र, स्पा, शुक्, जुद्द प्रति होम- विरोध पायेगा, वहां पाठक्रम उपेक्षा कर प्रर्थसिद्धि- साधन द्रव्यका लक्षण, यशकार्यमें सबके पान जानेको क्रम लिया जायेगा और जहां अतिपाठ तथा मन्त्रपाठ प्रणीत और उका व्यतीत पथविधान और उत्तर उभयका विरोध दिखायेगा, वहां श्रुतिपाठकम छोड़ वैदिकाकार्य में चावाल एवं उत्करके अन्तरालका मन्त्रपाठसे कार्य चलाया जायेगा। फिर बहु प्रधान 'पयनियम। ४थं कणिकर्मि-विहित द्रव्य का प्रभाव ट्रव्यका एकत्र प्रयोग विधान रहते किसी प्रकारके क्रम-. होनेसे काम्यकर्मके प्रारम्भका निषेध, नित्यकार्य विभागको व्यवस्था न कर मुमुदयके प्रयोग करनेका समूहमें प्रधान व्यका अभाव होते भी प्रतिनिधि नियम है। ६४ कण्डिका अवत्तहविः नष्ट द्रव्य से उसके अनुष्ठानका विधि, काम्यकार्य में समुदाय होनसे भन्यहविहारा कार्यसम्पादन, पग्नादि देवता, पल संग्रहीत होनेसे कार्य प्रारम्भ करने का विधि, मन्त्र एवं प्रयाज अनुयाज प्रति क्रियासमूहके फिर भी आरंभके पीछे किसी प्रधान ट्रयाका प्रभाव प्रतिनिधिका निषेध, दृष्टार्य अवघात . प्रभृति क्रिया- होनेसे प्रतिनिधि द्रव्य हारा इसका समापन एवं समूहके प्रतिनिधिका विधाम, किसी विहित वस्तुके पसमाप्त कार्यक त्यागका निषेध, नित्यकार्य पारम्भक पहले या पीछे प्रतिनिधि ट्रष्यका पायोजन करते, * भावि प्रशनार्थ सदीत विश्वौ पवत्ताविसावे । किन्तु काम्यकार्यको अवश्यवर्तव्यता न रहते + याविशेषको प्रयाग पौर पदयात्र करते।
पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/३५०
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