कबोरपन्यो यह पूर्वोक्त स्थानों में वाराणसीके 'कबीरचौरा'को ही सर्वप्रधान सीर्थ समझते हैं। ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश्वर बहुत हरे पौर अामविस्मृत हो मायाको मनोवाच्छा पूर्ण करते गये। इससे तीन कबीरपन्थियोंका प्रवत धर्ममत सहजमें मालूम कन्या हुयौं- सरस्वती, लक्ष्मी और उमा। माया नहीं पड़ता। किन्तु सम्प्रदायका अन्य पढ़नेसे अनेक ब्रह्मादिके साथ तीनों कन्याओं का विवाह कर व्वाला- अंशमें माना गया-हिन्दूधर्मसे ही यह मत निकला मुखो प्रदेशमें रहने लगी। उसने उत्त छहों पर विश्व है। कबीरपन्थी एकमात्र अपने मतको छोड़ अपरापर बनाने और नानाविध भ्रमात्मक ज्ञान एवं प्रमूलक सकल धर्म दूषित बताते हैं। इनके मसमें कबीर क्रियाकाण्ड चलानेका भार डाला था। ब्रह्मादि प्रवर्तित धर्मव्यतीत दूसरे सकल सम्प्रदाय भ्रमपूर्ण हैं। सकल मायाके अधीन हैं। इससे उनका पूजनादि कबीरपन्थी एक ईश्वरको मानते हैं। वह साकार करनेको विशेष आवश्यकता नहीं पड़ती। केवल और सगुण है। उसके पाचभौतिक शरीर और कबीरके स्वरूपज्ञानको लाभ करना हो सर्वधर्मका मूत त्रिगुण-विशिष्ट अन्तःकरण विद्यमान है। वह सर्व अभिप्राय है। फिर भी सकन देवता और उपासक शक्तिमान् एवं सर्वदोष-विवर्जित रहता और खेच्छानु उस दुर्लभ नानको पा नहीं सकते। सार सर्वप्रकार आकार बना सकता, किन्तु अपरापर सकल नौवोंका आमा समान है। वह पापमुक्त सकल विषयमें मनुष्यसे पार्थक्य नहीं पड़ता। यह होनेसे मनमाना रूप परिग्रह कर सकता है। अपने सम्प्रदायक साधुवोंकों ईश्वरानुरूप बुतात, जो जीवात्मा जबतक पापसे नहीं छूटता, तवतक नाना परलोकमें उसके समान रह एकत्र परम सुख पाते योनि घूमता है। उल्कापात होनेसे वह किसी ग्रहके हैं। ईश्वर प्राद्यन्तहीन और नित्यस्वरूप है। वीनमें शरीरमें प्रवेश करता है। स्वर्ग और नरक-उभय वृक्षके शाखापत्रकी भांति सकस वस्तु व्यक्त होनेसे मायाके कार्य है। वास्तविक खर्ग और नरक कहीं पूर्व ईखरके शरीरमें पव्यक्तभावसे अन्तर्निविष्ट रहते हैं। नहीं होता । पृथिवीका सुख हो.वर्ग और पृथिवीका फिर इनके कथनानुसार परमपुरुष परमेखरने दुःखं हो नरक है। प्रलयान्तको ७२ युग पर्यन्त एकाकी रह विश्व- कबीरपन्यो संसारके त्यागको ही सत् परामर्श बताते हैं। कारण-संसारमें रहते प्राथा, भय, लोभ सृष्टिको इच्छा की थी। अवशेषको उसकी इच्छाने एक स्त्रोमूर्ति बनायो। उसी स्त्रीका नाम माया प्रति द्वारा चित्तको शुधि नहीं होती। सुतरां है। माया प्राद्याशक्ति वा प्रकृति कहाती है। शान्तिक लाममें भी नाना विघ्न पड़ते हैं। गुरुको भक्ति ही प्रधान धर्म है। दोष करने पर गुरु शिष्यको परमेश्वरने मायाके साथ सम्भोग किया था। भन्स ना कर सकता, किन्तु दण्ड देनेका अधिकार उससे ब्रह्मा, विष्णु और शिवको उत्पत्ति हुयो। नहीं रखता। कौर देखो। फिर परमपुरुष छिप गये। क्रमशः माया अपने युखप्रदेश और मध्यभारतमें अनेक कवीरपन्यो पुत्रोंके निकट पहुंचने लगी। उन्होंने उसका परिचय रहते हैं। इनमें कोई विषयी और कोई धर्मव्रताव. पूछा था। मायाने उत्तरमें कहा-'मैं निराकार, खम्बी है। यह अत्यन्त सत्यप्रिय, उपद्रवशून्य पौर अगोचर और पादिपुरुषको सहचारिणी है। इस समय तुम्हारी सहचके लिये प्रायौ ई।' किन्तु | सुशीस होते हैं। इनके उदासीन अपरापर सन्यासियों- अमा, विष्णु और शिवने सहसा उसकी बात मानो की भांति न तो दुरन्सस्वभाव रहते पोर न भिषा नयो। विथैवतः विष्णु ऐसे वैसे .व्यक्ति न रहे, मांगते ही फिरते हैं। काशीधाम, कबीरचौरा मामक सानपर पनेक मायासे कठिन प्रश्न करने लगे। फिर पत्वन्त कुछ हो मायां चपणे पुबोंबो डरानेके वि दुर्यामूर्तिम | बबीरपनी पहुंच पास करते हैं। पूर्व बायोराब पावित यो। उस महाभवारी मूर्तिको देश' बसवन्तसिने बनवे पाहारादियो विधि दी थी। -
पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/३४
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