- . काशीपुर-कानीपुरी कामाची देवीको भोगमूर्ति के साथ एकामनाथको फिर नग्न रूपसे एदीचोरी नामक स्थान पर मदीकी भोगमूर्ति मिलायी जाती है। सामने जा पड़े। तब सरखती देवीने तन्नासे कामाक्षी देवीको मन्दिर कुछ छोटा है। इसके अधोमुखी हो अपना पूर्व सङ्कल्प परित्याग किया था। प्राङ्गण में भगवान् शङ्कराचार्य का समाधि है। इसौ इधर यथासमय यज्ञीय अखमांसको पाहुति दी गयी समाधि पर उनको प्रस्तरमयी मूर्ति प्रतिष्ठित है। भगवान् विष्णु, वही हुत मांस खाते खाते यत्रीय शिवकांचौमें अनेक शिवलिङ्ग हैं। इनके सम्बन्धमें अग्निसे आविर्भूत हुये। विष्णुके दर्शनसे ब्रह्माकी एक प्रवाद है-किसी समय एकामनाथने एक मुष्टि मनकामना सिद्ध हुयो। समागत ऋषियों और बालुका छोड़ी थी। उससे बालकाके जितने कण ऋत्विकोन विष्णुसे उसी स्थान पर रहने की प्रार्थना की गिरे, वह प्रत्येक शिवलिङ्ग बन गये। थो। नारायण उनको प्रार्थनासे सन्तुष्ट हो कांचीपुरमें एकामनाथको पूजाको १४००) रु प्रायके कई श्रीवरदराज स्वामीकै नामसे रहने लगे। आम लगे हैं। ८०५) २० नकद कलकरीसे आता है। सुनने में आया कि ११ शताब्दको कांचीपुरके इस मन्दिर में प्रत्यह वेदपाठ और वेदगान होता शासन-कर्ता गंजागोपाल रावने विष्णुमन्दिर प्रतिष्ठा है। उत्सवके समय भोगमूर्तिको रत्नालारसे सजा किया था। पहले वह अपुत्रक रहे। वरदराजको बाहक ब्राह्मण अपने स्कन्ध पर ले जाते हैं। पीछे कपासे उनके पुत्रसन्तान हुवा। इसीसे उन्होंने एक दूसरे ब्राह्मण वेद गाते चलते हैं। फाला न मास शिवमन्दिर तोड़वा उसौकी इंटोंसे एक वृहत् विष्णु- रथोत्सव होता है। उस समय विस्तर यात्री पाते हैं। मन्दिर निर्माण कराया और उसमें वरदराज स्वामीको यह देवालय कर्णाटक युद्धके समय सेनावास यो ला बिठाया। इसी विष्णुमन्दिरसे यह स्थान विष्णु- अस्पतालकी भांति व्यवहृत होता था। हार पर उसी कांची कहाता है। युद्धके एक गोलेका चिन्ह प्राज भी देख पड़ता है। विष्णुमन्दिरके देवोभवनके एक स्तम्भपर १७३२ उक्त शिवन्दिरसे २ कोस दूर विष्णुकांची है। थकको एक शिल्पलिपिमें लिखा कि-सोचनतन्वनी- यहौं वरदराज स्वामीका प्रसिद्ध मन्दिर बना है। मस नामक कोई व्यक्ति उदेय्यर पलेयमसे वरदराजको स्थलपुराणमें वरदराज स्वामीक उत्पत्ति-सम्बन्ध पर मूर्ति विष्णुकांची ले गया.. था। विष्णुमन्दिरके इस प्रकार लिखा है,-"किसी समय ब्रह्माने अखमेध द्वितीय प्रकोष्ठ में कृष्णराय निर्मित प्रसिद्ध भतस्तम्भ- यज्ञ किया था। कांचीपुरमें यज्ञस्थल निरूपित हुवा। मण्डप विद्यमान है। एक पत्थरको काटकर यह यज्ञभूमिका उत्तर हार नारायण, पश्चिम हार विरचि. मण्डप बनाया गया है। इसके निकट दूसरे भी पुर, दक्षिण हार चिङ्गलिपट और पूर्व हार महावली कई मण्डप हैं। उनमें वाइनमण्डप और कल्याण- पुर था। सरखती देवीने ब्रह्माके यनकी बात, न मण्डप हो ग्रेट है। इस मन्दिरको देवसेवाके लिये सुनी। नारदने ब्रह्मलोक जा उनकी संवाद दिया ३०.१) रु. पायका एक ग्राम लगा है। फिर था। उनकी इसने बड़ा क्रोध हुवा कि ब्रह्माने उनसे मन्द्राज गवरनमेण्ट भो २३१) रु. वार्षिक देती है। यह मन्दिर अतिसमृद्धिशाली है। इसकी केवल न कह यज्ञ करना प्रारम्भ किया।' वह यज्ञस्थल बहानेको नदी बन गयौं। ब्रह्माने यह सुन विष्णुसे | मणिमुक्ताका मूल्य हो लाख रुपयेसे अधिक होगा। सार्ड क्लाईवने ३६६१) २० मूल्यका एक कण्ठाभरण साहाय्य मांगा था। विष्णुके भाकर गति रोकने पर सरखती अन्तःसतिता होकर बहने लगों। विष्णु चढ़ाया था। वैशाख मास १० दिन बराबर इसका महोत्सव हुवा करता है। उस समय यहां प्राय::
- दाक्षिणात्यने प्रायः प्रत्येक विग्रहको दो मूर्ति होती हैं। मूलमूर्ति
मन्दिरमैं प्रतिष्ठित रहती है पौर भोगमूर्ति उन्मवादिमें नगरयावाको मनवी कांचीपुरी (.सं. स्त्री०) बायोपुर देखो। । भौगर्ति को पलसारादिस मनायी जाती है। पचास हजार यात्री पाते हैं।