काजी.-काजू काजी-मुसलमान समाजका विचारपति। जहां मक्का दर्शन करने गये थे। वहां से लोटने पर मुसलमानोंका राजत्व रहसा, वहीं काजीसमाज- सिन्धु प्रदेशके देवाल नामक ग्राममें इनको मृत्य नौति, धर्मनीति, फौजदारी और दीवानी विधिक हुयी। (१५६७ ई.). अनुसार विचार करता है। भारतका राज्य मुसल- काज (हिं. पु.) वृक्षविशेष, एक पेड़। इसे मान रानावके अधीन रहते समय काजी लोग वाला हिजली वादाम, बम्बई में काजुकलिया, विचारक पदपर अमिषित थे। हिन्दुस्थानमें भो तामित्रमें मुन्दिरी, तेलपमें जिदौमेमिदौ, कनाड़े में अनेक काजी विचार करते रहे। लोगोंके कथनानुसार केम्प, मलयमें परनकिमाव कुरु और ब्रह्मदेशमें उनमें पक्षपात और खेच्छाचारिताका कुछ प्रावल्य थोनीह कहते हैं। (Anacardium occidentale) था। आजकल अंगरेजाधिकृत भारतसाम्राज्यक यह वृक्ष ३०से ४० फौटतक जचा होता है। मध्य काजी मुसलमानों के विवाह कालमें उपस्थित काज दक्षिण अमेरिकासे भारतवर्ष में पाया है। भाज- ही विवाह बन्धनकी दृढ़ किया करते है। किन्तु कल यह भारत, चट्टग्राम, टनासरिम तथा आन्दामान तुर्किस्तान, अरब और ईरानमें यह आजकल भी होपपुज्ञके समुद्रतटके वन और दक्षिण भारतमें विचारक हैं। हां देशभेदसे इनकी मर्यादाका कुछ बहुत होता है। 'काजू दक्षिण अमेरिकाके 'अकाजाम तारतम्य रहता है। तुर्किस्तानमें विचारकको पूर्ण शब्दका अपच है। क्षमता रखते भी यह मुफतीके अधीन होते हैं। इसको छालसे पीला या लाल गोंद निकलता, जो • तुर्किस्तानके खलीफा हारुन् भन्न रसीदके समयसे पानीमें-कम घुलता है। कौड़े इससे भागते हैं। कानियों के हाथमें विचारका भार अपित हुवा है। छालको गोदनेसे एक प्रकारका रस बहने लगता सर्वप्रथम काजीका नाम अबू यूसुफ, था। सब है। इससे चिड डालनेको पक्की रौशनाई बनती है। देशोंकी अपेक्षा अरव राज्यसें काजियोंको क्षमता देशी कारीगर काजका रस लगा कर धातको चोल अधिक है। यदि प्रजा किसी कारण देशके अधिपति जोड़ते हैं। पर अभियोग लगाती, तो प्रबल पराक्रान्स मस्कटके छाल रंगनेके काममें लग सकती है। प्रान्दामान- अधिपतिको उपस्थिति भी काजीके समक्ष अनिवार्य | पासी काजूके वीजको कालका तेत मछली पकड़नेके ईरानके प्रत्येक नगरम' काजी रहते हैं। जाल रंगने में व्यवहार करते हैं। गोवामें इसे 'डोक' फिर प्रत्येक शेख-उल-इसलामके अधीन होता है। कहते हैं। वहां यह नावों और जामें रालको भांति कानी भजीम खां-एक मुसलमान चिकित्सक । खगता है। कान का तेल दो प्रकार निकलता है- उमराव भी थे। १५५१ ई० को आगरा नगरमें गुठलोके छिलके और मौगोसे। मोंगोका तेल कुछ यमुनाके तौर इन्होंने एक सुन्दर डद्यान बनवाया पोचा, मुलायम, ताकतवर और वादामके तेलकी तरह था। उस उद्यानका पूर्व-सौन्दर्य अब देख नहीं होता है। जैतूनका तेल इसकी बराबरी कर नहीं पड़ता, अधिकांश बिगड़ गया है। जो बचा है, उसे सकता। किन्तु भारतवर्षमै मोंगी बहुत खायो आज भी "हकीमका बाग" कहते हैं। जाती है। गुठलीके छिलकेका तेल काना, कड़वा काजी पहमद-एक विख्यात ऐतिहासिक। इनका और फफोले डालनेवाला है। लकड़ी में इसे चुपड़ पूरा नाम काजी अहमद बिन मुहम्मद अलगफ्फारी देनेसे दीमक नहीं लगती था। इन्होंने नुसख-ए-बहन-पारा नामक एक प्रौषधर्म काज का तेल कोढ़, नासूर, गुमड़ी और इतिहास लिखा। इस ग्रन्यमें मुसलमान-राध्यके छालेपर लगता है। मौंगी खानेसे रत सुधरता और स्थापनसे 2७२ हिजरी तक लेख्य घटनावली लिखो अङ्गको पौड़ाका प्रकोप दवता है। गुठलीके छिलकेका है। काजी अहमद पद्मजमें (पैदल) ईरानसे] तेल लगानेसे पैरका फटना बन्द हो जाता है। Vol. IY. • 83 पाती है। यह - ।
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