काना-काच ३२३ काङ्गा (सं० स्त्री०) कुत्सितं अंगं यखाः, कान टाप वहुव्री० । बचा, बच । कामुक (सं० क्लो०) षष्ठिक धान्यविशेष, किसी किसका धान। यह रस एवं पाकमें मधुर, वातपित्तशमन और शालिवद गुण होता है। (सुबुत) काच (सं.क्ली.) कच्यते वध्यते अनेन कच-धजन कुखम् । १ मोम । २ लाख या चपडा। ३ कासवण । (पु.) ४ शिक्य । ५ मणि विशेष । ६ नेत्र रोगविशेष, मोतियाविंद लिङ्गजाय और नौलिका ये दो इसके नामान्तर हैं। तिमिर रोगकी पहिली अवस्था में जब केवल चन्द्र, सूर्य, नक्षत्र, विद्युत् और उन्नत रत्न आदि की दिखाई देते हैं, उसी अवस्था का नाम 'काच' या लिङ्गनाश रोग है। शङनाभि, बहेड़ाकी मौंगो, इरोतकी, मनःशिना, पीपल, मिरच, कुष्ठ, और वच,-इन सब चीजोंका समान रीतिमे एकत्र करके बकरी के दूधके साथ पोसना चाहिये। फिर मटर की.वरावर गोलियां बना कर उड़े सुखा लेना चाहिये। इसके बाद इन गोलियों को पानी में घिस कर आंखों में लगाना चाहिये। इस अञ्जन से काच, तिमिर, पटलरोग, मांसद्धि प्रवद और रावान्ध आदि रोग नष्ट हो जाते हैं। गुप्त का नामान्तर। ८ मृत्तिका विशेष। इसका दूसरा संरक्षत नाम क्षार है। राजवनम के मत से इसका गुण-क्षाररस, उष्णवीर्य और अननहारा दृष्टि- प्रसन्नता कारक है। काव भङ्गप्रवण स्वच्छ वस्तु है । युरोपको सर्व प्रधान व्यवहार्य वस्तु यही है। हमारे देशर्म जिस प्रकार कांस, पीतन्न, पत्थर पादि के बर्तन यवहार में पाते है, उसीप्रकार इस ( कांच ) के बत्तंन यूरोपमें व्यवद्धत होते हैं। इसी लिए इसदेश को अपेक्षा यूरोप में काच अधिक तयार होता है और इस शिल्प की उन्नति भी खूब हुई। यूरोप मे काच इतना अधिक तैयार होता है कि, उससे देश का प्रभाव पूरा कर विदेशो में वापिल्पके लिये भी भेजा जाता है। भारत में भी यूरोप से काच आता।कांचसे बोतल, शोयी, कांच की चादर, पोत, कृत्रिम मोती, तरह तरह के बर्तन, झाड़, लालटेन, फानूस और नाना प्रकार को विश्लोरौ चीजें, चड़ी, वाना, बानी आदि अनवार बनते हैं और नाना देशो भेजे जाते हैं। यूरोपको कांच की चीजें हमारे अकेले भारतमें ही प्रत्येक वर्ष में ३५-३६ नाख रुपये की पाती हैं जिनमें १० बाख के तो मोती पादचाते हैं। वालुशिन और क्षार से कांच वनता है। भारत में इन दोनों चीजों का प्रभाव नहीं है । साधारण वाल में हो यथेष्ठ बालुकिन प्राप्त हो सकता है; और क्षार नाना सरहकी वस्तुओं से संग्रह किया जा सकता है। अच्छा कांच बनाने के लिये बालकिन की जगह चूलाई को जली हुई मिट्टो (Fire-clay)का चूर काममें लाया जा सकता है, भारतमैं उसका भी प्रभाव नहीं है। इतनी सुविधा होने पर भी भारत में भाज तक काँचके व्यापार को उन्नति न हुई। यहाँ पाज कल जैसा काच बनता है, उससे एक तो चूड़ियां और दूसरी जघन्य श्रेयो को कच्ची शौशियां वा कुपियों के सिवा पार कुछ भी नहीं बनाया जा सकता। इस देश के लांच बनाने वाले चार अधिक काम में लाते हैं, इसी लिये कांच पच्छा या साफ नहीं बनता। कमो को वे लोग क्षार इतना अधिक डाच देते हैं कि कांच तक नुन- खरा हो जाता । इसके बाद जैसी भट्टो में काँच गलाया जाता है, वह भी ठीक काम के काविज्ञ नहीं। कारण उसमें आवश्यकतानुसार उत्ताप नहों पैदा शेता और जो कुछ होता भी है, वह वरावर एकमां नहीं रहता। क्योंकि इस देश की भट्टी में अग्नि प्रज्वक्षित रखने के लिए धाशनी से हवा दी जाती है। इसीलिए धौंकनी को हवा के अनुसार प्राग का तेज सर्वदा घटता बढ़ता रहता है। फिर ऐसी हवासे गले हुए कांच में कुछ अंश पतला और कुछ अंश गाढा हो जाता है, इसलिए साफ भी नहीं होना। देशी काच, विशुद्ध क्षारके बदले सन्नीमिट्टी काममें लाई जाती है। इससे काच पच्छा नहीं बनता। क्योंकि इसमें ज्यादा- The meat 21 (crude carbonate of soda) कुछ हिज धार ( potash ) सैकड़ा पीछे ६०-७० भाग चूना, ३०-४० भाग कुछ पीले रंग की बालू ७ समुद्र
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