काकचरित्र २८३ से अभिलषित भोजन एवं यान लाभ, 'कक' मे अर्थ चाहिये,- प्राप्ति, 'क' से स्वयंलाभ, 'केंके से सुन्दरी स्त्रीमाप्ति, “इन्द्राय यमाय वरुणाय धनदाय भूतवायसाय वलिं यहास मै स्वाहा।" 'कां का से यावासिडि, 'क्रौं की से शुभलाभ और उक्त समस्त कार्यके अन्तको वहांसे पट निभृत 'कुंकू' शब्दसे प्रिय सङ्गम है। 'क्रां ' 'को' एवं 'क्रां देशमें निश्चन्त भावसे खड़े हो काकोको विशेष चेष्टासे क्रां' युद्दजनक और 'क्रां क्रां क्रौं की • . तया 'नौं शुभाशुभ देखते हैं। पूर्वदिकसे खाना प्रारम्भ करते कुकुकु मृत्यु लाता, 'क्रौं क्रौं' इष्टार्थ घटाता, 'जल जल' सुख और धन बढ़ता है। अग्निकोणसे भोजन प्रारम्भ अग्नि लगाता, 'को को तथा 'को को कण्ड कटाता, हात भाग लगती है। दक्षिण दिकसे खाते अर्थ नाश 'को सर्वदा विफल देखाता, 'क' मित्र मिलाता, है। नैतसे कार्य हानि होती है। पथिमसे अभीष्ट 'काका' हानि पहुंचाता, 'कु कु युद्ध लड़ाता, 'के के', सिधि है। वायु दिक् से अल्प जल बरसता है। उत्तरसे 'का कुटिं' एवं 'किं टिकि परदोष बनाता, 'कां कां मुख, पारोग्य और कार्य सिद्धि है। फिर वंशान दिक्- का महत् युद्धका समाचार सुनाता, 'का' वाइन से काको वलि खाते अभीष्ट मिल जाता । चारों बहाता और 'कु.कु कु' शब्द इर्ष दिन्नाता है। थान्त, पोरसे वनि बिलकुल विलुप्त हानिपर शन्नु और अशुभ दीन और उत्साहहीन काक दोध 'का' बोलनेसे कार्य दोनों परने की सम्भावना है। भाजन न करनेसे भयको नाशक है। 'बक वक' से भोजन मिलता और 'कलि पाशङ्गा उठती है। कलिसे रसनेन्द्रियगाध द्रव्य दूर रहता है । (रुक्ष चोरोक्ष, उपवन, चतुप्पथ, नदीतीर एवं देवालय खरसे बोलनेपर विदेशी व्यक्ति पाता है) 'भवशव से प्रकृति स्थानों पर भूतदिन (चौदश ) तथा अष्टमी मृत्यु, 'कणकण' से कलह कुलु कुख' से प्रिय व्यक्तिका तिथिको प्रसिद्ध गाधूम वा चणक हैं। एतद्भिन्न दूसरे पागमन पौर 'कट कट से अन्न एवं दधि भोजन प्रकार भी पिण्डदानको व्यवस्था है। नारदादिने होता है। इसी प्रकार साई प्रदीप्त और शान्त स्वरोसे तीन पिण्ड देनेवौ बात कही है। शुभाशम देख पड़ता है। शुभ दिनको चतुर्थं प्रहरके समय पूर्वोक्त स्थान पर वलि अर्थात् अभीष्ट आहारादि पानेसे काक नित्य पिण्डवय खान के लिये वाकीका भयत्न निमन्त्रण देते हो हितही कहता है। प्राचीन मुनियों ने कावलि हैं। दूसरे दिन प्रात:काल भूमि लेप पाछ पूर्व कथित प्रदानका जो नियम रखा, उसे हमने नीचे लिखा है मन्त्र द्वारा ब्रह्मा, विष्णु, महेखर, वरुण, लोकपाल दक्षिणको छोड़ अन्यान्य भोर वटादि क्षौरी वृक्ष और काका यथाक्रम दध्योदन, पाड़वातण्डुल, पुष्प थाश्रयसे बहु कानोंके एकत्र रहने के स्थलपर निवृत्त धूप प्रभृतिमे पूजते हैं। फिर पूर्वादि.दिक्के अनुसार दिनमें पहुंच कर वलि पिण्डके लिये निमन्त्रणं देना मथम पिण्ड में स्वर्ण, द्वितीय, रौप्य और. तोयमें पड़ता है। दूसरे दिन प्रातःकाल उस इचका निम्न लौह लगा पवरिष्ट द्रव्यसे वलि ..प्रदानके देश झाड़ पौछ गोमयसे चीपते हैं। फिर वहां वेदी उपयुक्त पिण्ड बनाना चाहिये। वलि भोजन करनेके बना ब्रह्मा, विष्णु, सूर्य, इन्द्र, अग्नि, वैवखत, राक्षस, लिये निम्नात मन्त्रसे काक बोलाये जाते हैं,- वरुण, वायु, कुवेर, शम्भु और प्रष्ट लोकपालको पूजा 'हिदि टिमि विकि काकालाय खादा। की जाती है। पूजाके समय प्रणव और नमः शब्द बक्षण विधाय काफचछालाय साक्ष" युक्त पृथक् पृथक् नाम लेते हैं। भय, आसन, काकके सुवर्णयुक्त पिण्ड भोजन करनेमे उत्तम आलेपन, - पुष्प, धूप, नैवेद्य, दीप, तण्डुल और कार्य होता है। फिर रौप्य युक्त खानेसे मध्यम और दक्षिणा पूनाका उपकरण है । पूनान्तपर तरु लौहयुद्ध लेने में अधम समझते हैं। निविष्ट काकोंको मन्त्रपाठपूर्वक पाशान कर दधि विवाद, वाणिज्य, विवाह, दृष्टि, मन, धन, पिण्ड युक्त वलि निम्नलिखित मन्त्र पढ़ते पढ़ते देना कृषि, भोग, रांग, संग्राम, सेवा, राजकार्य और देशक Vol. IV. 74
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