कबीर २६ । । रात्रि बीतनेपर वह वहिार खोल प्रत्यह गङ्गा था। आपने मेरे मङ्गपर पद रख राम नाम उच्चारण म्रानको निकलते हैं। तुम रातको उनके वहिरिके किया। उसो दिन मैंने राममन्च लाम किया था। सम्मख 'नाकर सो रहो। जब वह हार खोल बाहर उसी दिनसे मैं नियत राम नाम जपता है। प्रभो। पायेंगे, तब उनके पद तन्हारे पङ्गमें छू नायेंगे इसमें यदि मेरा दोष मान लीजिये, तो दयाकर समय उनके मुखसे निकले नामको तुम गुरुमन्च क्षमा दीजिये। समझ ग्रहण कर लेना। सिवा इसके रामानन्दके रामानन्दको कबीरका परिचय मिन्ना और उन्होंने शिष्य होनेका दूसरा कोई उपाय नहीं। क्रोध परित्यागकर इंसते इंसते आशीर्वाद दिया। कबीर वैष्णवको बातसे अाश्वस्त हुये और शुभ उसो दिनसे सब लोग कबीरको एक भक्त समझने दिनको रात्रि बीतनसे रामानन्दके द्वारपर लेट गये। लगे । यह नहीं-कबीर केवल भक्त हो रहे । उनका रात्रि शेष होनेपर रामानन्द प्रातःकत्यादि निवटा और हृदय दरिद्रके दुःखसे पिधन उठता था। किसी कुथ तिल उठा जैसे ही बाहर निकले, वैसे ही कबोरके दिन वह एक वस्त्र वेचने जाते रहे। पथमें कोई अङ्गमें उनके पद छ गये। कबीरने भी महासमांदरसे वृद्ध मिल गया। उस समय शीतकाल रहा। दरिद गुरुके पद चूम लिये थे। रामानन्द म्लेच्छके गावमें वृधने शीतात हो उनसे वस्त्र मांगा था। कबीरने पद लगते देख बोन उठे-राम ! राम ! तुम कौन । दरिट्रको दुर्दशा देख अम्नानवदन वस्त्र दे डाला। इसप्रकार कबीरका मनोरथ पूरा हुवा। उन्होंने | दान किया तो सही, किन्तु परमुइत उनके मनमें रामानन्दको गुरु कह साष्टाङ्ग प्रणिपात किया ।* संसारका उपाख्यान निकल पड़ा-हाय ! आज मेरे उसी दिनसे कबीरने 'राम' नामको सार माना घरमें अन्न नहीं, माता राहमें बैठी मेरे पानको ताक था। वह स्तव स्तुति कुछ न करते, केवल 'राम' लगाये होगी; मैं रिमा हस्त कैसे घर वापस नामको.ही मुक्तिका सोपान समझते रहे। फिर जाऊंगा। फिर उन्होंने मन ही मन सोचा-पान कबीर तिलक-माला धारण कर अपरापर वैष्णवोंकी दरिदको यह वस्त्र दे सुम जो मुख मिला, वस्त्र वैच भांति काशीधाममें रहने लगे।
- कर प्रर्थ ले उसका होना कहां था; मेरे अदृष्टमें जो
कवीरका प्राचार व्यवहार देख वैष्णव बिगड़े थे। आये, वही पड़ जायेगा। कबीर घर को लोट आये। एकदिन उन्होंने कबीरको बोलाकर कहा- म्लेच्छा आकर उन्होंने सुना था-माता व्यनन बना बैठे धमा तू किस साहससे तिलकमाला धारण करता है! राह देख रही हैं। कबीरने मातासे पूछा-माता! तुझको यह दुर्बुदि किसने दी है। भान हमारा संसार कैसे चला, पान तो हमारे कोई कबीरने शान्तशिष्ट भावसे उत्तर दिया-मैं सत्य संस्थान न था। माताने उत्तर दिया-कबोर। यह कहता ई, गुरु रामानन्दने मुझे राममन्त्र दिया और / क्या, तुम्होंने तो पादमी मेज हमारे पास अर्थ इसौमे मैंने ऐसा कार्य किया है। पहुंचाया है। कबीर भांश्चर्य में आ गये और पविग फिर सबने जाकर रामानन्दसे कबीरकी कथा गद्गदभाव, मातासे कहने लगे-'माता ! तुम धन्य कही थी। रामानन्दने अत्यन्त क्रुह हो उन्हें बोला हो। साक्षात् भक्तवत्सल भगवान् पाकर तुम्हें अर्थ भेजा। उन्होंने गुरके निकट जा कृताञ्जलिपुटसे दे गये हैं। माता ! दीनदुःखीको धन वितरण करो। धीरभावमें कहा- नाथ। क्या आप भूल गये ? हमें धनका क्या प्रयोजन हैं।' उस दिन राविशेष पर मैं आपके द्वारपर जाकर लेटा कबीरको माताने दीन-दरिद्रको धन बांटा था। रेखतेके मतमें कयौरने रामानन्दसे दौचाको मार्थमा की थौ- चारो ओर राष्ट्र हो गया-'कबीर बड़े दाता हैं। "प्रथमपि जोवाहा कीन्हा। चारिवर्ण मोहिं का न चीन्हा। जो जाता वही. पाता, कोई वृथा घूम नहीं पाता।' - रामानन्द गुरु दीक्षा देह। गुरुपूला कछु हमसी बैंक।" यह वदान्यता सुन एक दिन चारो पोरसे बहुतसे Vol. IT 8 1 1 .