बनानेवाला। २४० कल्पपादपदान-कल्पलतादान कत्पादपदान ( (सं० लो०) कल्पपादपस्य सुवर्ण कल्प पाच-णिच्-ऋण । १शौण्डिक, कलवार, गराड निर्मितपादपावतेदीनम् । महादानविशेष, सोनेके पेड़का बड़ा दान। बल्लालसेन विरचित दानसागर कल्पभव (स० पु०) देवता विशेष। जैन मतानुसार नामक ग्रन्थ में कल्पपादप दानका विधान इसप्रकार यह वैमानिक शेते हैं। जैन मतानुसार ये सोलह वर्णित है,- हैं-सौधर्म, ऐशान,सनत्कुमार,माहेन्द्र, ब्रह्मा,ब्रह्मोत्तर, "कल्पपादपदान देनेको इच्छा रखनेसे यजमानकी बान्तव, काणि, शुक्र,महाशुक्र, शतार, सहस्रार,प्रानत, तुलापुरुष दानकी भांति पुण्याद वचन तथा लोकेशका प्राणत, पारण,अच्युत। खेताम्बर जैनके मतसे कल्पभव आवाहन कराना और ऋत्विक, मण्डप, सम्भार, बारह हैं, अच्युत, आनत, पारण, ईशान, कानान्तक, भूषण एवं आच्छादान जुटाना पड़ता है। शक्तिके प्रणत, ब्रह्मा, माहेन्द्र, शुक्र, सनत्कुमार, सहसार अनुसार तीनसे एक सहस्रपल पर्यन्त स्वर्णके अधीशका और सौधर्म । जैन बताते-तीर्थंकरोंके जम्मादि नाना फलयुक्त और पांच शाखाविशिष्ट वृक्ष बनाते हैं। संस्कारोंमें कल्पभव पाते हैं। वह नाना वस्त्र और अलद्वारसे सजाया जाता है। कल्पमहीरह (सं० पु०) कल्पवासी महोत होति, फिर १ प्रस्थ गुड़पर शतावस्नके दो टुकड़े काल तल. कर्मधा। कल्पवृक्ष, एक पेड़। देशमै ब्रह्मा, विष्णु, शिव एवं सूर्यको प्रतिमा लगाते | कल्पलता (स. स्त्री० ) कल्पवृक्ष । और स्वर्णके अपर अर्धा शने १ दूसरा वृक्ष तथा कल्पन्नतादान (सं० लो०) कल्पनताया: ययाविध सुवर्ण- ४ मूर्ति बनाते हैं। सन्तान वृक्षके नीचे रति और निर्मिताया शताया दानम्, ६-तत्। महादानविशेष । कन्दर्पकी मूर्ति गुड़में रखना पड़ती है। यह वृक्ष दानसागरमें इस दानका विधि निस्रोत रूपसे - १ प्रस्थ पूर्व, हतपर लक्ष्मी सह मन्दार वृक्ष दक्षिण, लिखा है।- जीरकपर सावित्री सह पारिभट्र वृक्ष पश्चिम चौर शतितके अनुसार पांच हजार पच पर्यन्त परिमित तिलपर सुरभिसह हरिचन्दन वृक्ष उत्तरको रहता है। स्वर्णको दश लतायें वनावे और उनमें फल, पुष्प, ग्रह, प्रत्येक वृक्षको शल्ल वस्त्रके दो दो टुकड़ोंसे पाच्छादन पक्षी, विद्याधर, किन्नर, मिथुन, सिह तथा मुक्ताहार फिर प्रत्येक वृक्षके पार्खपर दो-दोके लगा। फिर नानाविध विचित्र वस्त्रोंसे उन्हें पाच्छा- हिसाव ८ पूर्ण कलस रखे जाते हैं। कलसपर इक्षु दन करे। बतावोंके निम्नदेयमें रखने के चिये ब्रह्मादि दण्ड और फलादि नफा कोपय वस्त्र ओढ़ाना पड़ता दश प्रतिमायें बनाना पड़ती है। सतारोपपके लिये है। पूर्ण कलसके पाखं देश में पादुका, उपनात्, छत्र, लवण, गुड़, हरिद्रा, तण्डत, वृत, चोर, शर्करा, तिल चामर, भासन, भाजन और दीप रखते हैं। फिर एवं नवनीत और पाचन स्थण्डिलके लिये दश धेनु, मन्त्र विशेषसे तीन बार प्रदक्षिण करते दो तीन दश कुम्भ तथा दश जोड़ा वस्त्र संग्रह करना चाहिये। पुष्याञ्जलि देनेपर शास्त्रोक्त विधानसे कल्पपादप दान व्रतके पूर्व दिन हविध भोजन, निवेदन, सत्यवाक्य होता है। दानके अन्तमें अधिक दान करनेपर विस्मित प्रभृति किये जाते हैं। दूसरे दिन गुरु, पुरोहित, न हो सकल प्रकार शठता देखानेसे दूर रहना यजमान और नापक उपवासी रहते हैं। पुरोहित चाहिये । इस महादानसे अश्वमेध यन्नका फल मिलता, प्रधान वेदीमें लिखित चक्रपर पूर्वादि पाठ दियामि सर्वपाप कटता और शतकल्प स्वर्गमें रह यजमान पाठ और लतामरूपमें दो सतायें रखते हैं। दोनों राजाधिराज दो जन्म ग्रहण करता है। फिर नारा. निवदेशमें लवणसे ईसारूढा बाबी पौर अनन्तयशि- को मूर्ति स्थापित होती है। पाठ दिशावों को दूसरी यणबलयुक्त, नारायण-परायण और नारायणकथा पाठ सतावोंके नीचे पूर्वदिकसे ययाक्रम पार कर सक्त रहनेसे वह नारायणलोक पाता है। कल्पपाल (सं० पु.) कल्यं सुराविधानकत्यं पालयति, गुड़ पर स्वर्णासन कुलिशायुधास्ता माहेन्द्री,हरिद्रा पर
पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/२३९
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