.. कल्कि २३३ हुवा। धर्मभ्रष्ट खश चण्डालादि भी सर देवापि तथा सुतरा हमें दोनों और लाभ ही लाभ देख पड़ता विशाखयूपसे भागे थे। है। वह ईश्वर और हम सेवकाधम हैं। कल्कि कोक और विकोकसे कल्कि देव लड़े। मधुकैट- हमसे जो सेवा कराना चाहेंगे, उसके लिये वे हमें भका युद्ध झक मारता था। कल्कि उनके अस्त्राघातसे अप्रस्तुत न पायेंगे! सुतरां प्रभु जब हमसे लड़ने अत्यन्त पीड़ित हुये। उन्होंने कुछ ही विकीकका गिर पाये हैं, तब हमने भी अपने प्रस्त्रशस्त्र उठाये हैं। काट डाला। किन्तु कोकके मृतदेवकी ओर देखते उनको इच्छा अनुसार हम कार्य करनेको वाध्य हैं।' हो वह जी उठा और फिर दोनों भाइयोका जोड़ा रानौने यह सुनकर उत्तर दिया,-'हरिके सेवक कभी काल्किपर टूट पड़ा। कलकिन कई बार दोनों का शिर कामनालिप्त नहीं होते। सुतरां स्वर्ग वा यसको काटा था। किन्तु एकके देखते ही दूसरा जीवित कामनासे आपका लड़ना असम्भव है। फिर आप हुवा। शेष कल्किने अपने अखको उनपर छोड़ जब कोयो कामना नहीं रखते, तब वह भी क्या दे दिया। कामगामी अखके खुरमहारसे दानव बार सकते हैं। मुतरी इमें आप लोगोंका यह युद्धोद्यम वार मूर्छित होने लगे। फिर भी उन्हें मरते न देख मोहनी लीलामात्र मालूम पड़ता है।' इसी प्रकार कल्कि चिन्तामें पड़ गये। ब्रह्माने उस समय रणम कथनीपकयनपीके शशिध्वज इरिनाम स्मरण और पहुंच कर कहा, 'विभो! यह दानव वस्त्रशस्वसे . हरिध्यान कर हरिसे लड़ने चले। शयाकर्ण लोग अवध्य है। इसने इन्हें एकको मरते दूसरे के देखनेमे : अस्त्र उठा उनके साथ हुये! राजकुमार सूर्यकेतु भी फिर जीउठनेका वरदान दिया था। सुतरां पाप वह परम वैष्णव और अस्त्रविदों में श्रेष्ठ थे। युद्ध प्रारम्भ उपाय करें, जिससे दोनों साथ ही मरे। कल्किने हुवा। विशाखयूपसे शशिध्वज, मस्से सूर्यकेतु और जव रहस्य समझ गदाको हायसे डाला और दोनोंके | देवापिसे वृहत्केतु लड़ने लगे। कल्कि सैन्य विश्वस्त एक काल ववमुष्टि मारा था। दोनों विदीर्ण मस्तक हुवा था। सूर्यके युद्दमें मूर्शित होते ही सारथि मरुको हो पञ्चत्वको पहुँच गये और एक दूसरेका मृतदेह ले भागा। हत्केतु देवापिसे हार गये। उनमें कोड़में देख न सके। देवता और मनुष्य सब उनके मरनेसे ! निये षित होने चगे। परन्तु इतने ही सूर्यकोतु साहा- परम प्रीत हुये ! सिहचारणादि कल्किको सराइने ! य्यके लिये पहुंचे और उन्होंने मुष्टिक आघातसे गिरा लगे। बलकिपुरमै उन्दोंने रण जीता था। देवापिके भुजबन्धनसे अपने माताको छोड़ा लिया। कल्कि उसके पीछे भन्नाटनगरको शय्यावर्गासे, शशिध्वज विशाखयूपको हरा झलकि सम्मुखौन हुये। 'लड़ने चले। भक्षाटनगरके राजा शशिध्वज प्रति भशिध्वजने कल्किने कहा, पुण्डरीकाक्षा प्राइये कृष्णापरायण और योगियोंमें अग्रगण्य थे। भगवान् और हमारे हृदयपर प्रहार लगाइये, नतुवा इमार कस्किको लड़ने आते सुन वहमी प्रीति और भनि भयसै हमारे अन्धकार हृदयमें छिप जाइये। यदि सहकारसे सैन्य सजाकर प्रस्तुत हुये। उनकी विष्णु - : भाप हमें यव समझे, तो निर्विवाद प्रहार करें; जिससे .परायणा सुशान्ता पत्नीने स्वामीको जगत्पतिसे हम अनायास शिव अथवा विष्णु नोक्षको चले। युद्धोद्यत देख कहा था,-नाय! भगवान के कोमल करिक यह बात सुन मन ही मन सन्तुष्ट हुये और शरीरपर भाप कैसे प्रस्न छोड़ेंगे। उन्होंने उत्तर ऊपरसे शशिध्वज परं वाण वर्षण करने लगे। दोनों में दिया,-'प्रिये ! रणस्थलमें गुरु शिष्यको भोर उपास्य महायुद्ध हुवा। दोनों दिव्य भन चलाते थे। उपासकको वेलाग मार सकता है। युरमें यदि । शेषको कल्कि मुध्याघातसे शशिध्वज मुहुर्त मात्र बचेंगे, तो जैसे के लेसे राना बनेही रहेंगे। और साय पञ्चतन्च रहे। फिर उन्होंने भी उठकर कल्किक ही कलकिको जीतनेसे लोग हमारी प्रशंसा करेंगे। मुष्टि मारा था। कलिक उस प्राधातसे छिमूल नहीं तो युधमें मरनेसे खर्गप्राप्त होना तो निश्चित से है।। कदलौकी भांति पतन हो गिर पड़े। धर्म एवं Vol. IV. 59 !
पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/२३२
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