। २२० कलिङ्ग णानुसार यह शब्द 'मुद्गलिङ्ग' कहा जाता है। तेलगु ई०के ७म शताब्द चोनपरिव्राजक धुयेननुयङ्ग भाषाम मुटुका अर्थ तीन है। सुतरां' मोदोगलिङ्ग' कलिङ्ग देशमें पाये थे। उन्होंने लिखा है-को- वा 'सुदुकलिङ्ग का' संस्कृत नाम त्रिकलित मानना उ-तो से ली कोसको अपेक्षा अधिक (१४०० या युत्तिसङ्गत है। १५०० लि) चलने पर इम कन्निङ्ग (कि-निङ्ग शिष) (Caldwell's Dravidian grammar, Intro.p, 32.) देशमें पहुंचे। (Si-yu-ki, BK.x.) निकलि जनपदका नाम दक्षिण देशके ५स, अब देखना चाहिये-कोहरतो देश जहां है। 2म एवं १०म शताव्दके शिचालेखी और तावशास कनिवाम साहबके मतमै उसोका नाम गन्नाम है। नोंमें मिलता है। लेमिने इसे विगलिपटन या (Cunningham's Ancient Geographs of India विलिङ्गन लिखा है। ( Ptolemy's Geog. Bk. vii. p. 513.) विख्यात चीन भाषाविद स्तानिमाला जुलें ch, 23 ) दक्षिणापथके तामिल शिलालेखोंमें यह ने 'कोड-तो' शब्दका संस्कृत नाम 'जोनयोध' 'तेलि' नामसे कलिङ्गन्देशके साथ उत हुवा है। खिर दिया है। किन्तु हमारो विवेचनामें, 'जोन्- (Archaeological Survey of Southern India, योध' नहीं, कोडोद होना अधिक सङ्गत है। सामान्य Vol. IV. p. 61.) स्कन्दपुराणमें 'तिलिङ्ग' नामक भूखण्डके अधिपति रहते भी कोङ्गोदराजका प्रताप जनपदका उन्लेख विद्यमान है,- कुछ कम न था। कोनोदराज्यको भूमि प्रत्यन्त "नरेद नशे च लचर्मकच पादकम् । उर्वरा है। प्रचुर परिमाणले धान्य उत्पन्न होता है। तिलग्देशे च तथा लचः प्रोक्न: सपादकः ॥” (कुमारिकाखग्छ ३७ ५० युधेनचुयाङ्गके मतकोडोदसे १०० कोर चलने पर शक्तिसङ्गमतन्त्रमें यही "तैलङ्ग" नामसे वर्णित है, कलिङ्गदेश मिलता है। ऐसा होते गन्नाम प्रदेय हो "यीश लन्तु समारभ्य चौलेशान् मध्यभागतः । कलिङ्गन्देश ठहरता है। फिर भी चीन परिबाजकने तेलङ्गदेशो देवेथि ध्यानाध्ययनतत्परः।" गजामसे कलिङ्गका धारभ होना माना है। यही त्रिकलिङ्ग वा तेलवका वर्तमान नाम लिङ्ग या वात हमें भी अधिस युतिसङ्गत समझ पड़ती है। तेलिङ्गन है। यह जनपद मन्द्राज उत्तर पलिकट इसमें महाकवि कालिदासको वर्णनासे सम्पर्ण नामक स्थानसे लेकर उत्तर गजाम और पश्चिममें सामञ्जस्य पाता है। चीनपरिव्राजकने कनिदेयकों विपति, वैज्ञारि, करनल, विदर तथा चन्दा तक विस्तृत भूमिका परिमाण प्रायः ३५७ कोम ( ५००० लि ) है। यहां तैनङ्ग (तिलगी) या तेलगु-भाषी हिन्दू लिखा है। अकवरले राजत्त्वकालमें कलिङ्ग दण्डपत् रहते हैं। उड़ीसके अन्तर्गत एक सरकार था। उस समय यह तीसरा मकोकलिङ्गी संस्कृत मधलिङ्गका रूपा. स्थान २७ महलोंमें विभक्त था। (पान-पदरी) तर है। प्राचीन भारतवासी वर्तमान प्राराकान इस प्राचीन विषयको छोड़ दीजिये। अब नवोन प्रदेशको मघहीप और उसके अधिवासियोको मध कहते थे। किसी किसीने मघहोपवासियोंकी ही प्रनतत्त्वविदों का मत देखना आवश्यक है। कोलबुक साहबके मतमें गोदावरी नदौके तटमा प्रदेश कलिट्ट लिनि- कथित मकोकलिङ्गी माना है। काहाता था।
- किसी किसी प्रवतत्वविद मतमै विकलित कानसे तीन कृषिद्धा
कनिवामके कथनानुसार युवेनचुयशने समयमें समझ पड़ते हैं पर्थात कलिक, मध्यकालिक और उतकालिन । उत्कलिइसे कलिङ्कराज्य गजामके दक्षिणपश्चिम १४००से १५०.लि (Indian Antiquary, ही अपध शमै उत्कल नाम निकला है। v. 59.) किन्तु यह मत सङ्गत नों जंचता। कारण महाभारत, अर्थात् २३३ से २५० मील दूर अवस्थित था। इस Julien's 'Pionen Jhsang', III, 91. हरिवंश पादिमें उत्कल शब्द पाया है। फिर किसी प्राचीन ग्रन्थम + Colebrooke's. Essays, Vol. II. p. 179. उत्कलिङ्ग नाम देख नहीं पड़ता।