२१८ कलिकारक-कलिङ्ग 1 -अम्। १ धम्याट पक्षी, एक चिड़िया। इसकी भगवन् । परस्त्र ग्रहण करना बड़ा अन्याय है। पापको पूंछ कांटे जैसी होती है। २ पोतमस्तकपक्षी, पोले धर्मसाधन यन्नका भाग समस्त प्रात्मसात् करना न सरकी चिड़िया। कलिं वकण्टकै रनिष्ट करोति। चाहिये। फिर सब उनको स्तुति करने लगे। याग ३ पूतिकरन, करील। ४ जनपिप्पली, पनिहायोपल। द्वारा अपना सम्मान बढ़ने पर रुद्र पशुको छोड़ ५नारद। देवयान पर चढ़े और स्वस्थानको चल हुये। इस कनिकारक (सं० पु०) कलिं वकण्टकैरनिष्ट करोति, विषयमें एक किम्बदन्ती है। देवगणने भयो मौत कलि-व-णिच-खत्। १ पूतिकरल, करील । २ लटा हो सर्वीक ट रसपूर्ण एक भाग रुद्रको दिया था। . करच। कलि कलह करोति। ३ नारद । (त्रि०)। हे युधिष्ठिर ! यह गाथा कोतनपूर्वक इस स्थानमें मान ४ कलहकारक, झगड़ाल। करनेसे खगका पथ प्रत्यक्ष होता है। फिर पाण्डवोंने कलिकारिका, कलिकारी देखो। द्रौपदीके साथ वैतरणीमें उतर पिटगणका तर्पण किया। कलिकारी (सं० स्त्री०) कलिं गर्भपाताद्यनिष्ठं करोति, इसके पीछे युधिष्ठिर कृतस्वस्ययन हो सागरके निकट कलि-क-अण्-डी । लाङ्गली वृक्ष, कलिहारीका पेड़। पहुंचे पौर लोमशका आदेश प्रतिपालन पूर्वक महेन्द्र इसका संस्कृत पर्याय-लागलो, हन्तिनी, गर्भपातनी, पर्वत पर रात भर ठहरे। दीप्ता, विशल्या, अग्निमुखी, नशा, इन्द्रपुष्पिका, स सागरं समासाद्य गहा सङ्गम भूप। विद्युज्वाला, अग्निजिता, व्रणहत्, पुष्पसौरभा, नदीयतानां पञ्चानां मध्ये चक्र समानवम् ॥ स्वर्णपुष्या पौर वह्निशिखा है। राजनिघण्ट्र के मतसे ततः समुद्रतीरेण नगाम वसुधाधिपः । धाभिः सहितो वोर: कलिंगान् प्रति मारत यह कटु, उपण, कफ तथा वायुनाशक, गर्भस्य शल्य खोमश उवाच । अर्थात् मृतगर्भनिष्कमक और सारक होती है। पते कलिङ्गाः शान्तेय यव तिरपी नदी। कलिकाल (संपु०) कलिरव कालः। कलियुग । यवाऽयगत धोऽपि देवाञ्छरपमेत्य । कलि देखो। ऋषिभिः समुपायुक्त यशिय गिरिशोभितम् । कलिङ्ग (स• पु०-क्ली०) कलि-गम-ड । उत्तर वीरमेनहि सततं दिजसेवितम् । यव । २ पूतिकरच, करील। के मस्तके लिङ्ग समान देवयानेन यथा स्वर्गमुपेयुषः । चिङ्गमस्या । ३ धम्याट। ४ कुटज वृक्ष। शिरीष- भन्न व ऋषयोऽन्ये च पुरा तुमिरोजिरे। पवैव रुद्री राजेन्द्र पग्रमादत्तवान् मर्छ । वृक्ष, सिरिसका पड़। ६ अश्वत्यवक्ष, पोपरका पेड़। ८ कोई अति प्राचीन राजा। दोध- पगमादाय राजेन्द्र भागोऽयमिति चाब्रवीत् । ती पयो वदा देवास्तमचर्भरतपम । तमाके औरस और वलिको पत्नी सुदेष्णाके गर्भसे मा परखमभिदीग्धा मा धनान् सकलान् वभोः । इन्होंने जन्म लिया था। भारतवर्षका एक जनपद। नतः कल्याणपामिर्वामिल रुद्रमस्तुवन् । देखना चाहिये-यह जनपद कहां है। इद्या चेन तर्पयित्वा भानयाधधिरे तदा। महाभारतमें लिखा, युधिष्ठिरने गङ्गासागरसङ्गम ततः स पयसत्यज्य देश्यानेन जग्मिवान् । थारुद्रय निमेश धष्ठिर । पर पहुंच पञ्चशत नदी में स्नान किया था। फिर वह श्रयातयाम सवै म्यो भागेभ्यो भागमुत्तमम् । भायियोंके साथ समुद्रतीरसे कलिङ्गदेशमें जा उतरे। देवा: सस्पयामासुमैयादुद्रस्य शश्नम् । उस समय लोमशने कहा-महाराज! इसी समस्त ततो वैवरयो सवै पाणया ट्रोण्दी क्या। प्रदेशका नाम कलिङ्ग है। यहां स्रोतवती वैतरणी अवतीर्य महाभागातर्पयाधकिरे पितृन् । बाती है। भगवान् धर्मने देवगणका पाश्रय ले यत्रा- वतः सववस्त्ययनौ महात्मा युधिप्रिय सागरमभ्यगच्छन् । नुष्ठान किया था। यत्रके समय भगवान् रुद्रके पशकी हलाच तत् शासनमन्त्र सर्वमहेन्द्रमासाद्य निशामुवास।" पकड़ कर अपना बताने पर देवगणने कहा-ई ७ जल पदार्थ . (महाभारत, वनपर्व १४.)
पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/२१७
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