पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/२१६

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कलिक-कलिकार २१७ ७ एक पति कन्याके गर्भसे इन्होंने जन्म लिया था। सकते। चण्डपत्त दो प्रकारका होता है-नख और प्राचीन ऋषि। इनका नाम ऋक्संहिता मिचता विशिख । फिर नख बीस प्रकारका है। वर्धित, है। ८ सङ्गीतका अन्तरा। शिव । १० वैष्णवोका बोरमद्र, समय, अच्युत, उत्पल, तुरङ्ग श्रीगुणरति- एक तिलक । इसकी श्रावति पुप्यको कलिकाको मातङ्गलेखित और तिलक । नौ प्रकारको छोड़ भांति रहती है। फिर प्रादि तथा अन्त सूक्ष्म और अन्य भेदका नाम प्रायः देखने में नहीं पाता। विशिख मध्य स्थल होता है। अति सुन्दर देख पड़नेसे इसे पाँच प्रकारका होता है-पद्म, कुन्द, चम्मक, वक्षुल 'रसकालि' कहते हैं। पौर वकुल । फिर पन छह प्रकारका है-परिह, (स्त्रो० ) ११ कलिका, फूलको कलो। सितकन्न, पाण्डुत्पल, इन्दौवर, अरुणाभोज और कलिक (सं० पु.) कलो मन्दगम्भीरो ध्वनिरस्त्वस्थ, यावहार। बकुल दो प्रकारका होता है-भासुर और कल मत्वर्थे ठन् । १ क्रौञ्चपक्षी, कराकुल या पन मङ्गल। इसी मांति चण्डहत्त बीस प्रकार बनता है। कुकड़ी चिड़िया। २ वंशधान्यभेद, वांसमें होनेवाला द्विगादिगणवृत्त पांच प्रकारका है-कोटक, गुच्छ, एक चावला सम्फुस, कुसुम और गन्ध । त्रिभनी इत्त दण्डक और कलिकम (सं० लो०) युद्ध, लड़ाई। विदग्ध भेद दो प्रकारका होता है। मिश्रकलिका कलिका (सं० स्त्रो०) कलिरेव खार्थे कन्-टाप् । गद्यसम्यक्ता पौर सप्तविभक्तिका भेदसे दो प्रकार है। १ कली, गुञ्चा। इसका संहात पर्याय-पुथ्यकोरक, केवला भी दो प्रकारको है-अक्षरमयी और सर्व- कति और कली है। 'लध्वौ। ४ इन्दोविशेष। "मुग्धामनातरनसां कलियामकाच । "प्रथममपरचरणसभुत्व' यति स यदि लम। इसरदितरगदितमपि व्यर्थ कदर्थ यस किं नवमालिकायाः।" (साहित्यदर्पण) यदिध तूर्य धरण युगलकमविचतमपरमिनि कालिका मा "(उत्तरवाकर ४५०) २ वीणाक्षा मूलदेश, बीन या सितारको जड़का प्रथम, द्वितीय एवं चतुर्थ एकरूप लक्षणाकान्त और हिस्सा। ३ रचनाविशेष, एक बनाव। तालवाले द्वतीय चरण अवित रहनसे कलिला छन्द बनता पदसमूहका नाम कता है। कालायुत्ता रहनेसे ही इस ५ कला, चन्द्र के ज्योतिका अंश। रचनाको कत्तिका कहते हैं। कलिका छ प्रकारको "तन्यन्ते कलिका यस्पासमानातिपयः स्मृताः।" (सिद्धान्तशिरोमणि) होती है,-चण्डवत्त, दिगादि महत्त, विभङ्गोवत्त, ६ वथिकाली, बिछुआ। ७ शरपुडा, सरफोंका। मध्य, मिथ और केवल। चण्डवृत्तम दाप्रकार संयुस इसनीलिका, काली झाडौ। पुष्पविशेष, एक वर्ण रहते हैं। मधुर, विष्ट, विशिष्ट, शिथिल एवं फूल। १० वाद्यविशेष, एक बाना। इस पर धर्म झादि संयुक्त वर्ण इख तथा दोघं भेदसे भिन्न हुवा करते चढ़ता था। ११ कलाजाजी, मंगरैला। हैं। इस्त्र तथा मधुर संयोगसे शङ्कर, अशा और कलिकाता (सं० स्त्री०) कलरूपा देखो। किङ्करको उत्पत्ति है। शिष्ट संयोगसे दपं, अपर कलिकापूर्व (स० लो०) कलिकया अंशेन जन्य पौर सपै वर्ग निकलते हैं। विशिष्टके संयोगसे भल्ल, अपूर्वम्। कर्म विशेष, एक काम। यह कम पूर्वजन्मके कल्याण और चिति बनते हैं। .शिथिल संयोगसे पश्य, कसैसे कोयी सम्बन्ध नहीं रखता और भावी फल कश्यप और वश्य उठा करते हैं। फिर हादि संयोग उत्पादन करता है। जैसे दर्थ और पौर्णमास याग- मध, गुध, मध और प्रसव पाये जाते हैं। कोई कोई का अङ्ग भाग्नेयादि यागसे अपूर्व होता है। इसे गाँदि शब्दको ही हादि संयुक्ता बताता है। दोध चरम भी कहते हैं। संयोगसे तुङ्ग, अङ्ग, कापस, वाल्य, वैश्य और बाधक "पप्रधानान्यतरवाकर्मसाध्य सर्गादिकलजनकापूर्वोतृपत्तो सतत प्राप्त होते हैं। चण्डवत्तमें हादसे चतुःषष्टि पर्यन्त प्रव्ये ककर्मजन्यमदृष्टम्।" (पति) कलाका नियम है। इसमें न्य नाधिक कर नहीं | कलिकार (स.पु.) कलि कलई कराति, कवि- Vol. IV. 55 - -