कफ । विशिष्ट एवं स्थानगत, बोधक रसनकी भांति अग्निमान्ध, नासिकादिसे कफस्राव एवं आवस्य कार्यकारी तथा स्थानगत और तकश्लेमा सुश्रुतोल आता, देह गुरु तथा खेतवर्ण देखाता, अनादि मेहनके सदृश क्रियाकारी एवं स्थानाचयी है। श्रोतल एवं शिथिल पड़ जाता और श्वास, कास तथा निद्राका आधिक्य सताता है। फिर कफ घटनेसे "भा श्रेयो गुरुः सिन्धः पिछिलः शीव एव च । मधुरस्वविदग्धः स्यादृषिदग्धो लवणः स्मृतः ॥” (सत्रुत) श्रान्ति लगती, हृदयादि नेभाशयको शून्यता भल- नेमा खेत, गुरु (भारी), निग्ध, पिच्छिल, कती, द्रवत्वको अल्पता पड़ती और शारीरिक सन्धि- शीतल, मधुर रसात्मक और बिगड़नेसे लवण रस समूहको शिथिलता बढ़ती है। जिस व्यक्षिके शरोरमें विशिष्ट होता है। कफ अधिक परिमाणसे रहता, वह कफके गुण- कफकै प्रकारका कारण और काल-गुरुपाकी, मधुररस क्रियादि विशिष्ट हो कफामक प्रकृतिको पहुँचता विशिष्ट, अत्यन्त स्निग्ध, द्रव (तरल) तथा पिष्टक है। ऐसे व्यक्तिको कफप्रकृतिक कहते हैं। लेभ- एवं तसंयुक्त ट्रव्य, दुग्ध तथा मधुररस खाने, दिनको | प्रवतिका लक्षण-गम्भीर बुद्धि, श्यामवणं एवं स्निग्ध सो जाने, और वाल्यकाल, शौसकाल, वसन्तकाल, केश, क्षमाशीलता, वीर्यवत्ता, स्थू लदेश, समधिक राविका प्रथमकाल, प्रभात तथा भोजनका अन्त समय बलवत्ता पौर निद्रावस्था, स्वप्रयोगसे जलाशय-दर्शन पानसे कफ प्रकुपित होता है। कफ उभरनेसे |-है। फिर नेमप्रवति बिगड़ने मेह, बन्ध (वाता). स्तिमितभाव, मधुररस, शीतता, शौकल्य, प्रसेक, मच स्थिरता, गौरव, वषको भांति बल, क्षमा, धृति और प्राचुर्य, स्थिरता, लवणासता, कण्हर आलस्य, चिर प्रलोभ लक्षित होता है। (सुखमोष) कारिता, कठिनता, शोथ, अरुचि, निग्धता, तन्द्रा, सुश्रुतक मतसे श्लेष्मप्रकतिका लक्षण-नीलवर्ण ढप्ति, उपदेच, कास पौर गुरुता-विंशतिप्रकार केश, सौभाग्यवत्ता, मेघ एवं मृदङ्गको भांति स्वर, लक्षण देख पड़ता है। कफज रोग, रुक्ष ट्रव्य, निद्रावस्थामें खप्नयोगसे प्रफुल्ल पन कुमुदादि विविध चार द्रव्य, कषाय ट्रय, तिक्त द्रव्य एवं कटु ट्रश्यका पुष्प, सन्तरणशील हंस चक्रवाकादि जलकौड़क पची सेवन, व्यायाम, निष्ठीवन (खखारकर थूकना), तथा हरित् मनोहर सरोवरादि जलाशय-दर्शन, धूमपान, उष्ण शिरोविरेचक द्रव्य (नस्यादि )का | रलान्तनेत्र, अविभागान, समावयव, निग्धदेह, सत्व- धमनकारक द्रव्यका प्रयोग, खेद (गर्म गुणयुक्त के शसहिष्णुता और गुरुको मान्यकारिता है। जलसे अभिषिध फलालैन आदि वस्वहारा सेक मानवके शरीर में दो प्रकारका कफ होता है- ,प्रदान ), उपवास, मथुन, पंथपर्यटन, युद्ध, जागरण; साम और निराम। पाम (अपक्ष)-रस-मिश्रित रहने- जसकोड़ा और पदादि द्वारा प्राघात लगाना उपकारी वाले कफका नाम साम है। फिर अपक्क रस-विहीन है। ऐसे ही पाहार विहार और औषधादिसे प्रकुपित कफ निराम कहाता है। निराम कफ अविकत कफ़ दब नाता है। उन रुष ट्रष्यादिको कफ और निर्दोष होता है। उससे किसीप्रकार पनिष्ट संशमनवर्ग कहते हैं। आनेको सम्भावना नहौं। किन्तु साम कफ विकत जलक्रीड़ा (सन्तरण) पौर शीतल क्रिया द्वारा और दूषित है। वह नानाप्रकार अहित उत्पन्न किस प्रकार कफ प्रथमित होता है-अनके उत्तरमें करता है। इसीसे उसके सकल लक्षण विखे कहा जाता, कि जलक्रीडाजनित शीतलतासे शारीरिक गये है- साप चलने नहीं पाता। सुतरां चतुर्दिक कर्दम लेपन "पाखस्सन्द्राध्दयाविरादिदोषाप्रत्याविषमूवषामिः । कर देनेसे पाकाग्नि प्रखर पड़ने पर सत्वर पाकक्रिया गुरुदावाकचिमुषवाभिरामान्वितं व्याधिमदाहरन्ति । (भावप्रयास) सम्पन्न होनेकी भांति शारीरिक अम्नि जलक्रीड़ादिसे भालस्य, तन्द्रां, इदयको पविशवता (वधावचमें अत्यन्त प्रखर हो कफको सुखासा है। कफ बढ़नेसे कफकट क.वाधावोध), दोषको प्रति (साव न Vol IV व्यवहार,
पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/२१
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