पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/१३३

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१३४ कर्णशकुलो-कर्णसुवर्ण उसमें रुयोकी बत्ती बनाकर डलाना और अपक्क तैल | कर्णशूल मिट जाता है। प्रपत्रके पुटमै जना लगाना चाहिये। अधिक रुधिर गिरने या वेदना | सेहुण्डपत्रका उष्ण रस कण में डालने से उल रोग बढ़नेसे अन्य स्थानका वैध समझते हैं। यथारीति प्रारोग्य होता है। फिर धो लगा अर्कका पक्कपत्र कर्णवेध होनसे किसीप्रकार उपद्रव उठनेकी आशा पग्नि वा रौद्रमें तपाने और हाथसे दवा कानमें रस नहीं आती। किन्तु अञ्ज भिषक् द्वारा कोयो दूसरी टपकानसे भी कर्णशूल घटता है। (चहत्त) शिरा छिद जानेसे विविध उपद्रव उठते हैं। कालिका | कर्णशूली (स'• त्रि) कर्णशूनो ऽस्यास्ति, कर्णशूल- शिरा विध होनेसे ज्वर, दाह, शोथ और दुःख बढ़ता इन्। कर्णशूलविशिष्ट, जिसके कानमें दर्द रहे। है। फिर ममरिका वेधसे वेदना, ज्वर एवं ग्रन्थि पौर | कर्ण शेखर (स० पु. ) शानवृक्ष, सालका पेड़। लोहितिका वैध मन्यास्तम्भ, अपसानक, शिरोग्रह कर्णशोध (सं० पु०) कर्ण स्रोतोगत रोगविगेप, और कर्णशून्तरोग लगता है। कानको सूजन। इस रोगसे कर्ण में अवंद और प्रय कष्टकर निमा, प्रशस्त सूचीके वेध, गाढ़तर वर्ती उत्पन्न होते हैं। (माधवनिदान) फिर कर्ण शोषसे प्रवेश अथवा दोषके प्रकोपसे वेदना तथा शोथ होने कान बहने और रोगो बहरा पड़ने लगता है । (बामट) पर यष्टिमधु, एरण्डमून, मनिष्ठा, यव एवं तिल बांट | कण शोथक, कर्णयोय देखो। और मधु घृत डाल प्रलेप चढ़ाते हैं। इस प्रलेपसे | कर्ण शोभन (सं० वि० ) कर्ण शोभयति, कर्ण-शुभ- अच्छा हो जानेपर फिर पूर्वोक्ता नियमसे कर्णवेध | णिच्-त्यु ट्। कर्णभूषण, कानका गहना । करना पड़ता है। छिट्र बढ़ानेको तीन दिन पीछे क्रमशः | कर्ण व (स• त्रि०) कर्णन श्रवः श्रवणयोग्यः शब्दो स्थ लव डाल लसे मेंक देना चाहिये। (मुटुत ) यत्र, कर्ण-शु-पच बहुव्रो । यवणके योग्य, मुन कर्णशष्क ली (स' स्त्री०) कर्ण योः कर्णस्य वा पड़ने लायक। शकली इव, उपमि। १ कणंगोलक, कानका "वषयवे ऽनिले रावी दिवापांशसमूहने।" (मनु) परदा। (Auricle or external ear) कर्ण सनाव (सपु०) कर्णस्य कर्प यो वा स्राव कर्णशिरीष (सं० पु०) कणंगतः शिरीषः, मध्यपद. पूयशोणितादः निस्रावणं यत्र रोगे, बहुव्री० । कर्ण - लो। कम्पर अलङ्कारवत् धारण किया हुवा शिरीष स्रोतोगत रोगविशेष, कानको एक बीमारी। मस्तक, पुष्प, जो सिरिसका फूल कानपर जेवरकी तरह रखा कोई आघात लगने, जलमें डब पड़ने अथवा प्राभ्य- हो। प्रवादानुसार कानमें फूल खोसना न चाहिये। न्तरिक कोई विद्रधि पकनेसे वायुके कर्णदार द्वारा कर्णशूल (० पु०) कर्णस्य शून्तः शूलवत् यन्त्रणा पूय वहानेपर कणं संसावरोग समझा जाता है। प्रदो रोगः। कर्णस्रोतोगत रोगविशेष, कानका दर्द। (माधवनिदान) दूषित कफ, पित्त एवं रतसे पथ रुकते वायु कर्ण में जामुन, सेमर, कंगई, मौलसिरी और वेरीको चारो ओर चलता और अत्यन्त वेदना उत्पन्न करता छालका चूर्ण कथेके रसमें मिला शहद के साथ कानमें है। इसी पौड़ाका नाम कर्णशूल है। कर्णशूल कष्ट- डालनसे कर्णसनाव रोग अच्छा हो जाता है। प्रथवा पुटपाकसे सिद्ध हाथोको विष्ठाका रस निकालते और साध्य होता है। कपित्य, निम्बुक एवं पाकका रस तेल तथा सैन्धव मिला कर्णसंसाव रोकनेको कानमें अथवा शुण्ठो, मधु, सैन्धव तथा तेल वा रसुन, आद्रक, शोभालना, रक्त शोभालनाके मूल और डालते हैं। (चक्रदत्त ) . कदलीका रस किञ्चित् उष्ण कर कानमें डालनसे | कर्ण समीप (सं० पु. ) शन्देश, कनपटी, गुलगुलो। कर्णशूल निवारित होता है। केवल समुद्रफेनको भी | कर्ण सुवर्ण-भारतवर्षका एक प्राचीन जनपद। प्रसिद्ध चीनपरिव्राजक युएन-यङ्गने 'किए-खो-न-सु-फ-न-न' कूटपीस कानमें भरा करते हैं। गोमूत्र, इस्तिमूत्र, नामसे जिस जनपदका वृत्तान्त लिपिवा किया,पायात्य उष्ट्रमूत्र अथवा गर्दभमूत्र उष्णकर कर्णपूरण करनेसे