पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 4.djvu/१२१

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१२२ दे डाला। कर्ण सर्वदा दुर्योधनके निकट ही रहते थे। पड़ती है। शब्द बन्द हो जाते भी उसका भाव स्थापन कर मान बढ़ानके लिये कर्णको प्रहराज्य एककाल कर्ण से नहों निकलता। कान देखो। २ नौकादण्ड, नावका डांड़। ३ सुवर्णालि वृक्ष। ४ चार बाहु और तोन हाथ कोटिका क्षेत्र । उनके मिलनेसे दुर्योधनका पाण्डवमय कितना हो. (वि०) ५ कुटिल, टेढ़ा। दोधकर्ण, लम्बे छूट गया। कानवाला। (प्पयनुः २।३०) एक दिन कर्ण ने द्रोणाचार्यसे कहा था, 'गुरो! कर्ण-युधिष्ठिरके अग्रज। भोजराजको दुहिता कुन्ती अनुग्रहकर हमें ब्रह्मास्त्र दे दीजिये। पापसे हमको अविवाहितावस्थासे पिटरपर अतिथिसेवामें लगी आशानुरूप प्राय: सकल अस्त्र मिले हैं। केवल ब्रह्मास्त्र रहती थीं। एकदा दुर्वासा ऋषि उनके अतिथि बने । बाकी है। उसको दे हमारी मनस्कामना पूर्ण करना उन्होंने प्रतियत्नये उनको सुबू पा उठायौ थी। मुनिने चाहिये।' द्रोण समझते थे, कि कर्ण अर्जुनसे बड़ा उससे परिवत हो कुन्तीको एक मन्त्र देकर कहा हेष रखते हैं। उसीसे उन्होंने कहा, 'जो नित्य शह इस मन्त्रसे कोई देवता बोलानेपर आ तुमसे सह व्रताचारी ब्राह्मण अथवा तप:स्वाध्ययनिरत क्षत्रिय वास करेगा। कुन्तीने पाथर्य प्रभावशाली मन्त्र रहता, वही व्यक्ति प्रयास्त्र के उपयुक्त ठहरता है। तुम्हें पा कौतूहलवश सूर्यदेवको बोलाया था। सूर्यने उसी ब्रह्मास्त्र मिल नहीं सकता।' पण उपस्थित हो उनसे सहवास किया। सहवास फिर कर्ण ब्रह्मास्त्र के हेतु महेन्द्र पर्वतपर पहुंचे। मात्रसे कवचकुण्डलधारी सूर्यसम तेजस्वी एक नव वहां अपनेको ब्राह्मण बता उन्होंने परशरामसे कुमार निकल पड़े। कुन्ती लोकतन्नाके भयसे उन्हें नानाविध अस्त्रशिक्षा पायी। फिर कर्ण परशरामके अखनदीके जलमें बहा पायौँ। कुमार कर्ण स्रोतमें प्रतिप्रिय पात्र बन गये। किसी दिन वह समुद्रतार बहते जाते थे। उसी समय अधिरय नामक किसी जा शरक्रीड़ा करते थे। घटनाक्रम उनके शरप्रवासे सूतने उन्हें देख लिया। पधिरय अपुत्रक थे। उन्होंने किसी प्राअणका होमधेनु पञ्चलप्राप्त हुवा। कने ऐसा सुन्दर शिशु देख नदीसे उठाया और परमानन्दमें वाधणक पैरों पड़ पनेक अनुनय विनय करते अपने निज पत्नी राधाके हाथ पुत्रनिर्विशेषसे खिलाया अनजान दोषके लिये क्षमा मांगी। प्राअपने क्रोध पिलाया। कवचकुखलरूप वसु(धन) देख उन्होंने उन्हें अभियाप दिया-कि 'जिसके लिये तमो स्पर्धा कर्णका नाम 'वसुषेण रख दिया। (हरानेके लिये सर्वदा चेष्टा) किया करते, उसीके कर्णने प्रथम द्रोणके निकट पत्र शिक्षा पायी थी। हाय तुम मारे जावोगे।' कर्ण शुल्समन पाश्रमको धनुर्वेदशिक्षाके समय अर्जुनसे उन्हें ईर्षा उत्पन चौट पाये। कुछ दिन रहते रहते उन्होंने परम- हुयी। किसी दिन रङ्गभूमिमें द्रोणाचार्यने शिष्योंकी रामसे ब्रह्मास्त्र प्राप्त किया। परीक्षा ली थी। उसमें पलौकिक कार्य देखानेपर एक दिन परशराम कर की जरूपर मस्तक रख उन्होंने अर्जुनको बड़ी प्रशंसा की। वह कणसे. सोते थे। उसी समय अलक जातीय अष्टपाद कोट सही न गयो। रङ्गस्थलमें सर्वसमक्ष उपस्थित हो आकर कण के ऊरुदेशको एक दिक् मेद अपर पार पशुनको ललकार उन्होंने कहा था-' -पजुना निकल गया। कर्ण गुरुको निद्रा टूटने के भय वह तुम्हारा वह कौयच हम भी सबको देखा सकते ममध यन्त्रणा सहते रहे। किन्तु उस दारण दंगनसे हैं। तुम्हें कोई पाश्चर्य मानना न चाहिये। फिर जरू विदोई होने रुधिरका स्रोत बह चला। गावमें कर्णने सर्वसमच अजुनकी मांति अलौकिकी धनु रख लगाते ही परपराम जागे। उनके पांव विद्याका परिचय दिया। उस समय दुर्याधन उनकी खोलते ही कोट मर गया। फिर परशरामने कसे कार्यप्रणाली देख मोहित हुये थे। उन्होंने बन्धुत्व कहा,-'वक्ष ! तुमने इस कीटका असा दंशन