पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/९६

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

६. अक्षिक-अक्षिजन मन्दिर बने हैं-एक कालकाबोर्ब देवीका और दूसरा सोमेश्वर महादेवका। अक्षिक, अक्षीक (सं० पु०) अक्षाय चक्राय हितम्, अक्ष-ठन् । रञ्जनवृक्ष। आलका पेड़। आलका जो रंग होता, वह इसी वृक्षको लकड़ोसे निकलता और ऊदापन लिये रहता है। अक्षिकूटक (सं० क्लो०) अक्षि-कूट-कन् । आंखका तारा, अक्षिगोलक। अक्षिगत (सं० त्रि०) १ नयनगोचर। २ घृणास्पद । ३ शत्र । ४ दृष्य। ५ शुकादिको भांति जो आंखोंको घुमाये, सुग्गेकी तरह आंख बदलनेवाला। अक्षिगोलक (सं० पु०) आंखका ढेढ़न । आंखको कटोरी। आंखको पुतलीवाला कोष । अक्षिजेन, अक्षिजेन् (Oxygen) अम्लजान। वायुका एक भेद जिससे चीजें जलती हैं। साधारण वायुमें कई प्रकारको पवन मिली होती है, यथा-अषि- जेन्, नाइट्रोजेन्, हाइड्रोजन् आदि। इसका साङ्केतिक चिह्न (Symbol)......अ(O)है। रूढ़सूक्ष्मांशका गुरुत्व (Atomic weight)...अ १५.८६, सूक्ष्मांशका गुरुत्व (Moleculer weight)...अ२ ३१८२ और वायुके साथ तुलना करनेका आपेक्षिक गुरुत्व...११०५७ होता है। इस पवनमें रङ्ग कुछ नहीं अर्थात् अक्षि- जन् वर्णहीन पवन है। इसमें न कोई गन्ध होता है और न कोई स्वाद, और न इसे नेत्रोंसे देख हो सकते अक्षिजेन भरी बोतलमें जलती बत्ती डालनसे भभक उठती है। एक टुकड़ा फसफरस इस बाष्पके भीतर डाल देनेसे उज्ज्वल प्रकाश होता है। इसमें ताड़ित-वेगको (बिजलोके वेग) प्रयोग करनेसे इसका गुरुत्व और तेज बढ़ जाता है। अक्षिजेन प्राणिमात्रका जीवन स्वरूप है। प्राणो खास लेनेके साथ जो वायु ग्रहण करते हैं, यह अक्षि- जेन उसका मूलाधान है। बिना अषिजनको सहा- यता अग्नि नहीं जलती, सुतरां जहां अक्षिजेन नहीं होता, वहां प्राण और प्रदीप दोनो हो बुझ जाते हैं। फिर, यदि केवल अक्षिजेनमें लकड़ी या बत्ती जलाई जाय, तो वह जल्द जलकर भस्म हो जायगी। इसी तरह केवल अक्षिजेन सेवन करनेसे देहको गर्मी इतनी बढ़ जाती, कि शीघ्रही जौवका प्राणवायु जलकर भस्म होता है। इसलिये जो वायु हम खासके साथ खोंचते हैं, वह विशुद्ध अषिजेन नहीं होता। उसमें यवक्षारजान ( नाइट्रोजेन, Nitrogen) मिला रहता है। साधारणत: वायुमें सैकड़े पीछे २३ भाग अक्षिजेन और ७७ भाग नाइट्रोजेन बाष्य होता है। अधिजन और हाइड्रोजन मिलनेसे जल बनता है। नाइट्रोजनका प्रधान काम अषिजनको दाहिका शक्ति मिटाना है। सभी जीव निवासके साथ अक्षि- जन ग्रहणकर. प्रश्वासके साथ कार्बन (Carriyan) बाष्य परित्याग करते हैं। वृक्षादि वहो कार्बन ग्रहणकर अक्षिजेन छोड़ते हैं। इसौसे वाटिकाओंमें टह- लना और घरों में अच्छे अच्छे पौधोंका लगाकर रखना लाभदायक है। अक्षिजेन प्राणिशरीरका माज नीस्वरूप है। जीवके शरीरमें नाना भांतिके दूषित पदार्थ एकत्र हुआ करते हैं। निश्वास द्वारा अक्षिजेन फेफड़े के भीतर घुसता है, जिससे सब दोष दूर हो जाते हैं। किसी कारण वायुमें इस बाष्पका भाग कम पड़नेसे नाना प्रकारके रोग उत्पन्न होते हैं। एक छोटे घरमें अधिक लोगोंके बैठे रहनेसे वहां अक्षिजेन कम पड़ जाता ; इसलिये उन लोगों में बोमारी फैलती है कोई बत्ती जलाकर ढांक देनसे वहांका अक्षिजेन कम पड़ता, इसीसे बत्ती भी बुझ जाती है। अक्षिजन बहुत ही सहज रीतिस प्रस्तुत किया जाता है। गिलासके जलमें नये पत्ते डाल उसे दूसरे जलपात्रमें उलटा करके रखो। पोछे धूपमै उसे रखने- से अक्षिजेन निकलता है। अधिक अक्षिजेन निका- लनका उपाय यह है,-एक शीशीके भीतर थोड़ा डाइ-अक्साइड-अब-मङ्गनिस् मिश्रित लोरेट अब पोटास रख शोशीका मुंह कागसे बन्द करना होता है। इस कागके बीच में एक छेद रहता है। इस छेदमें शीशेका एक टेढ़ा नल लगाकर उसका दूसरा सिरा एक दूसरी शौशौके भीतर घुसाना पड़ता है। पिछली शोशीको न्यूमेटिक ट्रफसे भरे जलके भीतर (Pneu-