पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/७६९

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७६२ अभिनय खिलौना देखनेसे भी हमें कौतूहल होगा, कारण वह भी स्वाभाविक वस्तुका अनुकरण है। किन्तु अनुकरणमें ठीक सौसादृश्य न रहनेसे कुछ भी आनन्द नहीं आता। अभिनय-कार्य भी अनुकरण है। किन्तु चित्रपट और खिलौने आदिको अपेक्षा यह अनुकरण और भी कठिन है। इसमें हृदयके प्रत्येक भावको बाहर निकालकर दिखाना पड़ता है। मनमें यथार्थ शोक दुःख न रहते भी अनुकरणके अनुरोधसे एकबार रोना पड़ेगा। किन्तु उस समय प्रसव मुख रो देनेसे नहीं बनता। गाल फुला, होंठ कंपा और आंख में आंसू भर ठीक शोकके समयको तरह मलिन मुख आंसू बहाना होगा। इसी तरह सकल विषयमें अनुकरणनैपुण्य न रहनेसे अभिनय मनोहर नहीं होता। दृश्यसौष्ठव सब समय चाहे अनुकरणके लिये आवश्यक न हो, किन्तु रङ्गभूमिपर श्रोता और दर्श- कोंके मनमें आनन्द उत्पन्न करनेका यह एक प्रधान उपकरण है। हमलोग गुणका ही अधिक आदर करते हैं। परन्तु गुण देखने और सुननेपर उसके आधारसे मिलना चाहेंगे। दुर्योधनका लोहमय शरीर पर्वतशृङ्ग जैसा कठिन रहा। जिन भीमने लोहेको गदासे दुर्योधनको छाती तोड़ डाली, उन्हें गोदमें लेकर देखनेके लिये धृतराष्ट्रको सहज ही इच्छा हुई थी। बनमें रहता हूं, पेड़के ऊपर चिड़िया मधुर स्वरसे गाती है, तो उसे देखनेको लालसा होती है। गोकुलके बनमै श्रीकृष्ण वंशीमें राधाका नाम लेकर अलापते थे, उधर वंशौकी ध्वनिसे राधाका कान भर जाता और प्राणपखेरू चञ्चल हो उठता था। इसीलिये उन्होंने एक दिन श्रीकृष्णसे पूछा, -“वशोके किस रन्धमें ध्वनि भर कर तुम मुझे उदा. सिनी बना देते हो। तुम्हें मेरा ही शपथ ! एक बार उसी तरह मेरे सामने बजाकर सुनावो।" अतएव गुण सुननेसे उसका आधार देखनेको इच्छा स्वभावसे ही लोगोंको हो आती है। किन्तु गुणके सदृश आधार रहनेसे देखने में अधिक मनोहर मालम पड़ता है। इसीसे अभिनेवगणको सुभव्य, रूपवान् एवं सुसज्जित होना आवश्यक और रङ्गभूमि तथा उसके पटादिको सुचित्रित करना कर्तव्य है। जो लोग युरोपीय और पारसी भाषा नहीं समझ सकते, वह भी हिन्दोस्थानियोंको बनिस्बत युरोपियों और पारसियोंको रङ्गभूमि और नटनटीका अच्छा साज देखकर अधिक मुग्ध हो जाते हैं। श्रुतिमाधुर्य भी अभिनयका एक प्रधान अङ्ग है। यह गुण न रहनेसे अभिनयकार्य विरक्तिकर हो जाता है। बुद्धिमान् लोग कहते हैं, कि इसी प्रधान गुणके अभावसे आजकलको लोला अतिशय कुत्सित हो गई है। वीरत्व देखानेके समय केवल गला फाड़ फाड़- कर चिल्लानेसे काम नहीं चलता। मौखिक दम्भ, हुङ्कार एव चीत्कारके साथ आस्फालन और शरत्के मेघगर्जन जैसा शब्द भी रहना चाहिये। किन्तु निषाद चण्डाल आदि नीच आदमी ही ऐसा करते हैं। वौरवंशके महाराज इससे दूर रहेंगे। वह मनका तेज, मनका दम्भ और वीरोचित कार्य देखाकर वीरत्व प्रकाश करते हैं। हुङ्कार और आस्फालनको भी सौमा रहेगी। इस बात पर ध्यान रख वीरत्व प्रकाश करना उचित है, कि श्रुतिकट दोष न आने पाये। और दो कारणोंसे यात्रा प्रभृति अभिनय कार्यमें माधुर्य नहीं आता। वह दोनो कारण लम्बे लम्ब शब्दोंमें वक्तृताको छटा और अयथा विलाप हैं। अभिनय खभावका अनुकरण होगा। हमलोग सहज हो जैसे बोलते चालते, नाटकको भाषा भी ठीक वैसी ही होना चाहिये । भला आदमी भले पादमीको तरह बोले, परन्तु दीर्घच्छन्दमें बड़े-बड़े शब्द न आजकल लीलामें भी यह दोष बहुत भर गया है। इससे यथार्थ गुणग्राही थोता प्रोंको उसमें आनन्द नहीं मिलता। सरल और सचराचर प्रचलित शब्दमें अभिनयका विषय रचनेसे लोग सहज ही मुग्ध हो जाते हैं। बड़े-बड़े पण्डित भी बातचीतमें 'मा' ही कहकर पुकारते हैं, 'मातः' नहों कहते । इसलिये करुणवरसे 'मा' कहकर पुकारनेपर शरीर रोमाञ्चित होता है। किन्तु 'मातः' शब्द मनको उतना नहीं खींच सकता। लायेगा।