पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/७६८

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अभिनय क्यों शकुन्तले । कमलके पत्ते को हवासे क्या कुछ यहां इन कई शब्दों में सौताका तेज, अभिमान सन्तोष नहीं मालूम होता ? और मन-भाव एकबारगी हो उछल पड़ा है। ऐसा किन्तु सन्तोष क्या होगा, शकुन्तला बोल ही सौन्दर्य और किसौमें नहीं देखते । अभिनयके काममें उठी,-'किं विचन्ति में सहीश्री ?' सखियां मुझपर क्या सौताकी तरह अभिमान कर ठीक उसी समय हवा कर रही हैं? मनका वेग नहीं रुकता। केवल जैसी कातरोक्ति बनाना हो यथार्थ सुन्दरता होगा। चार शब्द थे। चार ही शब्दोंमें शकुन्तलाको सारी रसन्न व्यक्ति कहते हैं, कि सौन्दर्यको एकदम ज्वाला जीव धारणकर प्रकट हो गई। दुष्मन्त राजाके खोलकर देखानेसे अधिक शोभा नहीं होती। पूर्णचन्द्र लिये इतना कष्ट हुआ था, कि सखियोंका कमलके मेघके छोटे छोटे टुकड़ोंमें छिपाकर देखानेसे अधिक पत्तेसे हवा करना शकुन्तलाको मालूम भी न सुन्दर मालम पड़ेगा। अभिनयके भावको भी पड़ा। यहां कुछ ही शब्दोंमें मनकी बात कही एकदम खोल कर बतानेसे रस नहीं रहता। कुछ गई है। हृदयका कष्ट न खुलते भी सब बातें इस अस्पष्ट रखकर कहनेसे मनकी बात अधिक मिष्ट तरह प्रकाशित हुई हैं, कि ऐसा मनका भाव और लगेगी। किसी तरह व्यक्त नहीं पड़ता। वाक्यद्वारा मनका वस्त्राभरण आदि रचनाद्वारा प्रकृत मूर्तिके अनु- भाव व्यक्त करने में इतना ही सौन्दर्य रहेगा। शकुन्तला करण करनेको आहार्य कहते हैं। प्रक्त घटनामें यदि कहती,-'सखि । मुझे इतना कष्ट हुआ है, कि जिस मनुष्यका जैसा वयःक्रम और जिस मनुष्यका तुम्हारा कमलके पत्ते से हवा करना मालूम भी नहीं जैसा शृङ्गार उचित हो, अभिनयके समय ठीक होता, तो उसमें क्या सौन्दर्य रहता, शकुन्तलाको वैसा ही रहना चाहिये। इस नियमके अनुसार कातर बात हमारे मर्मस्थानको स्पर्श न करती। काम न करनेसे अभिनय मनोहर न होगा। .: सीता बनवासमें थीं। किसी दिन हठात् राम जैसी आजकल स्वांगमें कितनी ही जगह इस नियमपर मधुर वाणी सुनकर उन्होंने तमसासे पूछा, 'जलयुक्त लोगीकी दृष्टि नहीं आती, इसीसे दृश्य बहुत नवीन जलद जैसा यह गम्भौर शब्द मेरे आर्यके खराब हो जाता है। लव-कुश बनानेके लिये बारह सिवा दूसरेका तो नहीं हो सकता ?' तमसाने दो एक वर्षका लड़का हो शोभा देगा। फिर वह दोनो बार चतुरौ की, परन्तु अन्त में छिपा न रख सकनेपर वनवासी रहे ; वनमें राजवस्त्र और राजभूषण कहाँ कहा,- थे ! इसलिये लव-कुशको बकले जैसे किसी कपड़े वयते तपस्यतः शूद्रस्य दडधारणार्धम् ऐच्चाको राजा जनस्थानमागत इति । और वनपुष्पसे सजाना ही अच्छा लगता है। सुना है, कि इक्ष्वाकुवंशीय राजा शायद किसी स्तम्भ, स्वेद, रोमाञ्च आदिको सात्विक भाव कहते शूद्रको तपस्याके लिये दण्ड देने इस जनस्थानमें हैं। यह भाव मुख, हस्तपद आदिके विशेष भङ्गी आये हैं। बारह वर्ष स्वामीका दर्शन नहीं हुआ एवं रोमाञ्च और अश्रुपातसे साधित होता है। था। ऐसी अवस्था में यदि सामान्य प्रकृतिको कोई स्त्री अभिनयमें कई गुणों को बड़ी ही आवश्यकता है। होती, तो आह्वाद और दुःखसे कितना रोती और यथा,-अनुकरणनैपुण्य, दृश्यसौष्ठव, श्रुतिमाधुर्य एवं दौड़कर स्वामौके चरणोपर जा लोटतौ। परन्तु सौता परिहास । मनुष्यको प्रकृति है, कि मनमें यथार्थ जनककन्या, रघुकुलवधू और वीरपती रहीं। उनके वस्तुका संस्कार रहते उसको नकल देखनेसे अतिथय उच्च हृदयमें उच्च तेज, अगाध गाम्भौर्य और मनमें अभि आनन्द पाता है। मनुष्यका यह स्वाभाविक धर्म मान परिपूर्ण था। उन्होंने आह्वाद न कर केवल यही होनेसे हमें वानरोका अनेक प्रकार कौतुक देखना कहा,-"दिदिबा अपरिहीशरावधम्मो कथु सो राा।" भाग्यक्रममें अच्छा लगता है। कारण. वह कितनी ही बार उस राजाका राजधर्म अक्षुस भावसे चलता तो है। मनुष्योंका अनुकरण करते हैं। तखोर और मौका Vol. I. 191 3