पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/७५७

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७५० अभिग्रस्त-अभिचार कर्मणि धज । अभिघातयति, अभि-हन् हबानी रखनेवाला, जो भली भांति हिफाजत करता | अभिघाति (स.पु.) स्वार्थे णिच्-इनि। रिपु, शत्र, दुश्मन, अदू। अभिग्रस्त (सं० त्रि.) अभि-ग्रस्-क्त । आक्रान्त, अभिघातिन् ( सं• त्रि०) अभिहन्ति, अभि-हन्-णिनि । कवलीकृत, अभिपन्न, हमला मारा हुआ, जीता गया, शत्रु, नाशक, मारनेवाला, जो चोट पहुंचा रहा हो। जिसको दुश्मनने दबा लिया हो। अभिघार (सं० पु०) अभिधार्यते अभितोऽग्नौ सिच्यते, अभिग्रह (स.पु.) अभि-ग्रह-अप । आक्रमण, युद्ध, अभि- सेचने स्वार्थे णिच् भावे घञ्। १ वृताहुति, हमला, लड़ाई।२ प्राभिमुख्यका उद्यम, मुकाबिला, घौका होम । २ वृतसस्कार विशेष, घोकी बघार । बदौबदा। ३ सिच्यमान वृत, जिस घोसे ३ प्रकाश्य हरण, लट-मार, डाका। ४ गौरव, अधिकार हुकूमत, इज्जत। ५ अभियोग, होम लगे। नालिश, मुकद्दमा, बखेड़ा। अभिधारण (सौ. ली.) अभितो घारणं जलादिभिः 'अभिग्राहोऽभियोगोऽभिग्रहण गौरवेऽपि च ।' (विश्व) विधिना सेचनम्. अभि-घृणिच् भावे लुपट्। घृतादि अभिग्रहण (सक्लो० ) अभि-ग्रह-लुएट । अभिग्रह देखो। संस्कारविशेष, घो वगैरहको छिड़काई । अभिघट (सं० पु.) वाद्यविशेष, खास किस्मका बाजा। अभिधारित (सं० त्रि०) छिड़का हुआ, डाला गया। इसका चलन पूर्वकालमें बहुत रहा। प्राकारमें इसे अभिधार्य (सं० त्रि.) छिड़का जानेवाला, जी घड़े-जैसा रखते और मंहपर चमड़ा मढ़ देते थे। छिड़कने काबिल हो। अभिघर्षण (सं० क्ली) अभि-वृष भावे लुट । परस्पर अभिचक्षण (सं०-पु. स्त्री०) १ अतिविचक्षण, कार्य- घर्षण, दो पदार्थका परस्पर मर्दन, मालिश, रगड़। कुशल, निहायत होशियार, अच्छा काम करनेवाला। अभिघात (सं० पु०) अभि-हन् भावे घन । १ निःशेष- २ चैतन्य, रक्षाका उपाय, होशियारी, बचावका रूपका हनन, समूल नाश, ताड़न, गहरी मार, जरिया। ३ मन्त्रका औषध, जादूको दवा। (स्त्री०) मटियामेट । २ दण्डादि द्वारा आघात, शस्त्रमुष्टिलगु- अभिचक्षणा। डादिका हनन, चोट। ३ वेदका सुतीक्ष्ण उच्चारण। अभिचच्य (स. त्रि०) प्रत्येक स्थानमें प्रशंसित, अभिऽन्यतेऽस्मै फलाय उद्दिश्यार्थे बाहुलकात् धक् । जिसका तजकिरा हर जगह पाये। ४ दो वसका परस्पर संयोग, जिस घातमें शब्द अभिचर (सं• त्रि०) अभितः आज्ञापालनार्थं सम्मुखे निकले, गहरी रगड़। ५ आगन्तु ज्वर-लक्षण, पाने चरति, अभि-चर-अच् । भृत्य, सम्मुखागत, नौकर, वाले बुखारके प्रासार। किसी वर्गके चतुर्थका हाजिरबाश। (स्त्री०) अभिचरौ। प्रथम एवं तीय, द्वितीयका प्रथम और तृतीयका अभिचरण (स'• लो०) अभि-चर-लुपट् । शत्रु-मरण के द्वितीय अक्षरसे योग। निमित्त विहित श्येनयागादि, मारणादि क्रिया। "अभिघातं स्यात् पूर्व वेदहिवाब्धिवाचे त् । अभिचरणीय (त्रि.) अभिचरणमर्हति, अभि- नगवर्गाणां परतो धरणीचन्द्रद्धिरामाव्याः ॥" (केरल) चर-छ। जिसको मारनेके लिये अभिचार चलाना अभिघातक (सं० वि०) अभिहन्ति, अभि-हन्-खल् । आवश्यक आये, मारणयोग्य । शत्र, रिपु, अभिघातसंयोगकारक, समूलनाशक, अभिचरत् (सं• त्रि.) शत्र के मारनेको मारणादि पौके हटानेवाला, जो अलग कर रहा हो, दुश्मन । क्रिया करते हुआ, जो दुश्मनको मार डालनेके लिये अभिघातज्वर (सं० पु०) आघातजन्य भागन्तुकज्वर, जादू चला रहा हो। चोटके सबब पानवाला बुखार। यथा,- अभिचरितु (वै० स्त्री०) मारणादि क्रिया, अफसून, "ताभिधातजो वायुः प्रायो रक्त प्रदूष्य च । जादू। सम्पथाशीफवैवयं करोति सरुन ज्वरम् ॥" (चरक) अभिचार (सं० पु०) अभि आभिमुख्य न विनायुत्-