पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/७३१

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०२४ 1 जोड़ना पड़ेगा । उसी योग फलको ६०से भाग दीजिये। अवशिष्ट अङ्कको ५से भाग लगानेपर जो अङ्क लब्ध हो, उसी संख्यासे नारायण (विष्णु) प्रभृति युग एव अवशिष्ट अङ्गहारा उसी युगका अनुवर्ती जो (प्रभवादि) वत्सर चलता, वह जाना जायगा। उक्त वत्सर-संख्या जितनी हो, उसे (६०से अधिक होनेपर ६० निकालकर केवल वत्सराङ्गको) से गुण, फिर इस वत्सरसंख्याको १२से भाग कीजिये भागफलको इस नव गुणित अङ्कमें जोड़कर ४से भाग देने पर जो आये, उसी संख्याके नक्षत्रमें वृहस्पतिको विद्यमान समझना पड़ेगा। परन्तु गणनाके समय २४ नक्षत्रसे गिनना होगा। (अर्थात् १ लब्ध होनेसे जानना कि २५ नक्षत्र वा पूर्वभाद्रपद नक्षत्र, २ रहनेसे उत्तरभाद्रपद इत्यादि) प्रभवादि षष्टि- संवत्सरके प्रत्येक पांच वर्षमें एक-एक युग रखकर ( एक बार्हस्पत्यमानमें ) १२ युग होते हैं । १२ युगोंके १२ अधिपति हैं और उन अधिपतियोंके नामसे ही युगके नाम निकलते हैं। (बृहत्संहिता ८ अध्याय) नौचे बारहो युगों और उनके अन्तर्गत वर्षों के नाम दिये जाते हैं- युगोंके नाम १ला विष्णुयुग १ प्रभव, २ विभव, ३ शुक्ल, ४ प्रमोद, ५ प्रजापति। २रा बृहस्पति ६ अङ्गिरा, ७ श्रीमुख, ८ भाव, ८ युवा, १० धाता। ३रा इन्द्र ११ ईखर, १२ बहुधान्य, १३ प्रमाथी, १४ विक्रम, १५ वृष। था अग्नि १६ भानु, १७ सुभानु, १८ तारण, १८ पार्थिव, २० व्यय। २१ सर्वजित्, २२ सर्वधारी, २३ विरोधी, २४ विकृति, २५ खर। ठो उत्तरप्रोष्ठपद २६ नन्दन, २७ विजय, २८ जय, २८ मन्मथ, ३० दुर्मुख । ज्वा पिढगण. ३९ हेमलम्ब, ३२ विलम्बी, ३३ विकारी, .३४ सर्वरी, ३५ नव। युगोंके नाम वर्षों के नाम ८वां विश्व ३६ शोभवत्, ३७ शुभकत्, ३८ क्रोधो, ३८ विश्वावसु, ४० पराभव । 2वां सोम ४१ प्लवङ्ग, ४२ कोलक, ४३ सौम्य, ४४ साधारण, ४५ बोधवत् । १०वां शक्रानील ४६ परिधावी, ४७ प्रमादी, ४८ आनन्द, ४८ राक्षस, ५० अनल । ११ वां अखि ५१ पिङ्गल, ५२ कालयुतक, ५३ सिद्धार्थ, ५४ रौद्र, ५५ दुर्मति। १२वां भग ५६ दुन्दुभि, ५७ उद्गारी, ५८ रक्ताङ्क, ५८ क्रोध, ६० क्षय। अब तीन प्रकारके उपायसे बाईस्पत्यमान निर्णीत होता है। उनमें वराहमिहिरको अवलम्बित गणना- प्रथा ही सबसे प्राचीन है। इसौ गणना द्वारा कल्यब्द- के १ले अङ्गमें बाहस्पत्यमानका २४वां वर्ष पड़ता है। यही अङ्क रखकर कल्यब्दारम्भसे २३ वर्ष पहले अर्थात् ३१२८ हृष्टपूर्वाब्द षष्टिसंवत्सरका आरम्भ स्थिर किया जाता है। वराहमिहिरका मत संशोधन करके दूसरा उपाय वा ज्योतिस्तत्त्वको गणना प्रचलित हुई है। इस मतसे बार्हस्पत्यमानका प्रथम वर्ष कल्यब्दके पहले वर्ष में ही पड़ता है। यह दोनों गणनाप्रणाली आर्यावर्त में प्रचलित हैं और इनसे बाहस्पत्यमानका प्रत्येक ८वां वर्ष निकाल दिया जाता है। तीसरे प्रकारको गणनाप्रणाली दाक्षिणात्यमें प्रचलित है। वहां बार्हस्पत्यमान और सौरवर्ष की गणनामें कोई पार्थक्य नहीं पड़ता। बाहस्पत्यमान- वाले षष्टिसंवत्सरके प्रभवादि नाम एक-एक सौर वर्ष के नाम छोड़ और कुछ नहीं होते। महाबार्हस्पत्य-चक्र । उपरोक्त बाहस्पत्यमान वा षष्टिसंवत्सरसे भित्र दूसरा कोई हादशवर्षात्मक बाहस्पत्य अब्द भी होता है। यह बार्हस्पत्य नामसे विख्यात है। बृहस्पतिके उदय और अस्तानुसार इस अब्दकी गणना की जाती है। इस अब्दका विवरण प्रारम्भमें (७१८ पृष्ठमें ) लिखा हुआ है। वर्षों के नाम पूर्वा त्वष्टा