पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/६७८

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६७२ अप्सरस-अप अथर्ववेदमें बताया, कि अप्सरा गन्धर्वको स्त्री दान जीतती हैं। मैं अक्षकोड़ाप्रवीणा अप्सराको हैं। गन्धर्व पहले पृथ्वीपर पहुंच मनुष्यगणको कुल जहां बुलाता, वह चयन करती, छुड़ा देती और कामिनी चुरा ले जाते थे। किन्तु अप्सरोगणको अक्षकोड़ामें दान जीतती हैं। जो अक्ष लेकर नाचती पाकर उन्होंने वह दुष्टकर्म छोड़ दिया। महाभारतमें और अक्षक्रीड़ामें वाजि जीतती, वह हमें लाभ पहं- अप्सरोवंशका विषय वर्णित है। सिवा इसके कभी चायें और वाजि जिता दें। वह प्रचुर खाद्य ले किसी महात्माके तपस्या आरम्भ करते ही इन्द्र उस हमारे पास आयें। खेलाड़ी जिसमें हमारा धन तपस्या में विघ्न डालनेको प्रायः सर्वत्र हो खगको जीतने न पाये। हम इस जगह आमोदिता अप्सरा- विद्याधरियोंको भेज देते थे। (ऋक् ७३३।१३।) कहते हैं, को बुलाते हैं ; वह अक्षक्रीड़ामें आमोद पातों और कि उर्वशीसे वशिष्टका जन्म हुवा। शोक एवं क्रोध देखाती हैं। अप्सरा देखने में साधारण प्रेत-जैसी होती हैं। अप सरस्तीर्थ (सं० पु०-क्लो०) अपसरसां तीर्थः, किन्तु यह मायारूपिणी रहें, इच्छा पानेसे मनोहर ६-तत्। १ अप सरासे देखा गया कोई तीर्थ किंवा रूप भी बना सकेंगी। अथर्ववेदमें देखते, कि अप सराके गङ्गाजलमें उतरने की सिड्डी। (त्रि.) इन्हें पासे खेलनेकी अतिशय आसक्ति रहती है। अप्सरामिव तीर्थ दर्शनं यस्याः, बहुव्री० । अप्सरा मनमें आनेसे यह मनुष्यको भागावान् बना देंगी। जैसे रूपवाली, जिसकी शक्ल परोसे मिले। पहले लोगोंको विश्वास रहा,-मनुष्यको भूतको तरह अप्सरा (सं० स्त्री०) स्फुर स्फुलने अप्स, प्रसरः अप्सरा भी मिल जाती हैं। अप्सराके फेरसे लोग रूप यस्याः नञ्-५-बहुव्री। १ अपनी अपेक्षा अन्य उन्मत्त हो जाते . रहे। इसलिये भूत उतारनेको किसीका रूप न रखनेवालो स्त्री, जिस औरतके बरा- तरह रोगीको अप्सरा भी दूर करना पड़ती थीं। बर कोई खूबसूरत न रहे। अथवा, रूपमस्त्यस्याः; अप्सरोगण अक्षकोड़ामें ऐसे प्रवीण रहे, कि अप्स कुञ्जादित्वाम् प्राशस्त्य-र । २ स्वर्गको वेश्या, कदिक समयमें जो पासे खेलता, वह उनका नाम ले विद्याधरी, परी अप्सरापति (सं० पु.) १ अप्सराका अधिपति, “यद हस्तान्या चकम किलिषाणि अक्षाणां गणमुपलि समायाः । परियोंका राजा। २ शिखण्डिन् नामक गन्धर्व विशेष । उग्रम्पश्ये उग्रजितौ तद्याप्सरसावनुदत्तमृग नः ॥ (अथर्व दा११५१) अप्सरायमाणा (सं० स्त्री०) अप्सरस -क्यङ कर्तरि हे उग्रम्पश्य एवं उग्रजित् अप्सरा! हमने पासे शानच। अप सरा-जैसी सुन्दर स्त्री, जो औरत फेंक हस्त द्वारा जो पाप पहुंचाया, अद्य वही ऋण हो चुका दीजिये। दूसरी जगह लिखा है,- अप्सव (सं० त्रि०) अपसं जल रसं वाति हिनस्ति "उदृभिन्दवौं सन्चयन्तीमप्सरा साधुर्दविनीम् । वा-क, ६-तत्। जलरसशून्य, जिसमें पानीका मज़ा ग्लहे कृतानि कृण्वानामप्सरां तामिह हुवे ॥ न रहे। विचिन्वतोमकिरम्भीमप्सरा साधुर्दविनीम् । अप सव्य (स० पु.) अप स जले भवो दिगादित्वात् म्तह कतानि मडानामसरामतामिह हुवे। या पायैः परिमृत्यति भाददाना कृतं म्लहात् । यत्। जलजात, जलमें उत्पन्न हुवा, पानौसे निकला। सा न कृतानि सौषति प्रहामानोतु मायया ॥ अपसस् (सं• क्लो०) · न पसाति, प सा-असुन् मा नः पयस्वती पौतु मा नौ नेषुरिदं धनम् । बाहुलकात् आकार लोपः । १रूप, शल, सूरत । या पवेष प्रमोदन्ते गुच क्रोधच्च विवति। २ कपोल, गाल, रुखसार। पानन्दिनौं प्रमोदिनीमप्सरा तामिह हुवे।" अप्सा (सं• त्रि०) आपो जलानि सनोति ददाति, मैं अक्षक्रीडाप्रवीणा अप्सराको बुलाता, वह अप्-सन् विट्। जलदाता, पानी देनेवाला। भाकर उभेद करतो, जय : पातीं एवं अक्षकोड़ामें अपसु (सं० वि०) प्रसु रूपं नास्ति यस्य, नञ्- लेता था। परौके बराबर खूबसूरत