पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/६७४

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६६८ अप्रस्तुतप्रशंसा "सगिय यदि जीवितापहा हृदये कि लिहिता न हन्ति माम् । चाहे पुरुषभावसे विचलित हों (अर्थात् यद्यपि विषमण्यमत क्वचिद्भवेदमृतम्बा विषमीश्वरच्छया ॥" स्त्रियोंका भाव धारण करें); चाहे अधोगामी बनें यह माला यदि प्राणनाशिनी है, तो मेरे हृदयपर (अर्थात् यदि पाताल चले जायें); चाहे याजाके रहकर मुझे नष्ट क्यों नही करती? अतएव ईश्वरको विषयमें महत् न हों ( अर्थात् यद्यपि खर्व रहें), तो इच्छासे किसी आधारमें विष अमृत होता और कहीं भी वह जगत्का उद्धार करते हैं। पुरुषोत्तमने यह अमृत भी विष बन जाता है। कैसी अनिर्वचनीय नौति निकाली है। कहीं अहितकारी वस्तु हित और कहों हितकर एक पक्षमें ऐसा भाव आता है, कि क्षीरोदसागर वस्तु अहित करतो, यह सामान्य प्रस्तुतविषय कहने में किनारे अमृत बांटते समय विष्णुने माहिनौ मूर्ति विष एवं अमृत यह विशेष अप्रस्तुत कहा गया है। धारण को थी, जलप्लावित जगत्का उद्धार करनेके ५। तुल्य विषयके वर्णन करनेको इच्छासे तुल्य लिये वह वराह-रूप धारण कर पाताल गये थे और का वर्णन करना दो प्रकार होगा। उसमें एक श्लेष- राजा वलिके छोने हुए राज्यका उद्धार करनेके लिये मूलक और एक सादृश्यमूलक रहता है। श्लेषमूलक त्रिपाद भूमि मांगते समय उन्होंने वामनमूर्ति धारण प्रयोगस्थल में समासोक्ति अलङ्कारको तरह कहीं केवल की थी। अतएव इन सब विशेषणों द्वारा विशेष्य विशेषण पदका और कहीं श्लेष अलङ्कारको तरह विष्णुका हो बोध हुवा। विशेष्य एवं विशेषण इन दोनों पदोंका श्लेष होगा। दूसरे पक्षमें,-राजा यदि पराक्रमहीन भी हों, वा केवल विशेषण पदके श्लेषमें, यथा- नीचता अवलम्बन करें, वा याज्जाके लिये महिमाशून्य "सहकारः सदामोदो वसन्तौसमन्वितः । हो जावें, तो भी अपना राज्य उद्धार करते हैं। इस समुज्ज्वलरुचिः श्रीमान् प्रभूतोत्कलिकाकुलः ।" नौतिको पुरुषोत्तम नामक किसी राजाने प्रकाश इस श्लोकका अर्थ दो प्रकार है। एक अर्थ आम्र किया है। वृक्षक पक्षमें और दूसरा नायकके पक्षमें पड़ेगा। आम इस जगह जिस श्लेष वाक्यहारा विशेष करके वृक्षके पक्षमें यह सहकार वृक्ष सदैव सुगन्धयुक्त, अप्रस्तुत विष्णुका ज्ञान होता, उसी श्लेष वाक्यद्वारा वसन्त समयके पल्लवादिसे सुशोभित, उज्ज्वल कान्ति विशेष करके प्रस्तुत राजा भी समझ पड़ता है। युक्त एवं सुश्त्री तथा प्रचुर बौरोंसे परिपूर्ण रहता है। इसीसे यह विशेष्यद्वारा श्लेषमूलक अप्रस्तुतप्रशंसा नायकके पक्षमें-यह सदामोदः-सर्वदा आबाद अलङ्कार कहा जायेगा। युक्त, वसन्तश्रीसमन्वितः–वसन्तकालको उपयुक्त वेश सादृश्यमुलक यथा- भूषासे सुशोभित, समुज्ज्वलरुचिः-शृङ्गाराभिलाषयुक्त, "एकः कपोतपीतः शतशः श्येनाः क्षुधाभिधावन्ति । प्रभूतोत्कलिकाकुल:-अतिशय उत्कण्ठित है। किसी अम्बरमावतिशून्य हरि हरि शरण विधः करुणा ॥" नायिकाने अप्रस्तुत आम्रवृक्षके उद्देशसे इन सब एक कबूतरका बच्चा है, पर सैकड़ों भूखे बाज बातोंको कहा था, किन्तु उसको इन सब बातोंके उसपर धावा कर रहे हैं, आकाशमें कोई आवरण रेषार्थसे। प्रस्तुत नायकको प्रतीति पड़ी। इसीसे यह नहीं। हाय ! इस समय विधाताको करुणा हो. मेषमूलक अप्रस्तुतप्रशंसा अलङ्कार कहा जाता है। उसके लिये एकमात्र शरण है। विशेष्य श्लेष यथा,- यहां निःसहाय अप्रस्तुत कबूतरके बच्चे पर कहे "पुस्तादपि प्रविचलिद यदि यद्यधीपि याबाद यदि प्रश्चयने न महानपि स्यात् । हुए यह सब वाक्य वैसे ही प्रस्तुत किसी विपदग्रस्त अभ्युद्धरत्तदपि विश्वमितीदृशीय' केनापि दिक् प्रकटिता पुरुषीचमन ॥" मनुष्यके बारेमें घटते हैं। इस श्लोकके श्लेष वाक्यसे विष्णु और राजा दोनों सादृश्यमूलक अप्रस्तुतप्रशसा अलङ्कार वैधर्ममें: का बोध होगा। यथा- भी होता है। यथा-