पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/६६५

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

अप्रताप-अप्रतिग्राह्य ६५६ यलोपः ; नास्ति प्रता: विस्तारो यस्मात्, ५ नञ्- | अप्रतिक्रिय (सं० पु-लो०) नास्ति प्रतिक्रिया प्रति- बहुवी। १ अतिविस्तीर्ण, निहायत वसोय, हदसे कारो यस्य, नञ्-बहुव्री०। प्रतिकारशून्य, प्रतिकार- ज्यादा फैला हुवा। (अव्य.) २ विना धन, होन, लादवा, तदबीरसे खाली। बगैर दौलत। अप्रतिक्रिया (स. स्त्री०) प्रतिक्रिया प्रतिकारः; अप्रताप (सं० पु०) १ प्रतापका अभाव, धुंधलापन । न प्रतिक्रिया, अभावे नत्र-तत्। १ प्रतिकाराभाव, २ तुच्छता, कमौनापन । उपशमका न होना, तदबीरको नामौजूदगी, दवाका अप्रति (स. त्रि.) नास्ति प्रति प्रतिनिधिः प्रतिद्वन्दी न मिलना। (त्रि.) नास्ति प्रतिक्रिया ऽस्याः, नज. वा यस्य, नञ्-बहुव्री०। १ अति उत्कृष्ट, अप्रतिरूप, बहुव्री। २ प्रतिकारशून्य, प्रतिकार पहुंचाने में असदृश, अनुपम, निहायत उम्दा, बेजोड़, जिसका अशका, तदबीरसे खाला, जो दवा न दे सके। जवाब न मिले। (अव्य० ) २ बेरोकटोक, धड़ाकेसे । अप्रतिग्टहीत (स० त्रि.) लिया न हवा, जो ग्रहण अप्रतिकर (स.त्रि०) प्रति सादृश्ये क कतरि अच् न किया गया हो। प्रतिकरम् ; न प्रतिकरम्, नञ्-तत् । १ विश्वस्त, अप्रतिगृह्य (सं० त्रि.) जिससे कोई वस्तु न लो एतबारी, जाना-बूझा। (पु० ) प्रति-क भावे अय जाये. जो कोई चीज़ देने काबिल न हो। प्रतिकरः प्रतिक्षेपः, न प्रतिकरः अभावे नत्र-तत् । अप्रतिग्रहण (सौ. ली.) १ दी हुयी वस्तुका न २ प्रतिक्षेपाभाव, झगड़ेका न होना। (त्रि०) ३ प्रति लेना, बखू शिशको चीज का न छूना। २ विवाहका क्षेपशन्य, झगड़ेसे खाली। त्याग, शादीका न करना। अप्रतिकर्मन् ( स० त्रि०) न विद्यते प्रतिकर्म प्रति- अप्रतिग्राहक (सं० त्रि०) स्वीकार न करनेवाला, जो क्रिया प्रतिकारः यस्य, नत्र -बहुव्री०। १ प्रतिकार मञ्जूर न फरमाता हो। पहुंचानको अशक्य, जिसका बिगाड़ न हो सके। अप्रतिग्राह्य (स• त्रि०) प्रतिग्रहीतु योगा प्रति- नास्ति प्रतिकर्म सदृश कम यस्य, नज-बहुव्रो० । ग्रह अर्हार्थे ण्यत् प्रतिग्राह्यं न प्रतिग्राह्य नजतत् । २ असदृश-कर्मकारी, जिसके बराबर कोई काम कर प्रतिग्रहके अयोगा, जिसे प्रतिग्रह न करना चाहिये ; न सके। जैसे, सोना आदि द्रव्य। अदृष्टके निमित्त त्यक्त द्रव्यके 'अप्रतिकार (स० पु०) प्रति-क-घञ् उपसर्गस्य वा खोकारको प्रतिग्रह कहते हैं। दीर्घाभावः प्रतिकारः; न प्रतिकारः, अभाव नञ्-तत् । "प्रतिग्टह्या प्रतिग्राह्य' भुक्ताचान्न' विगहितम् ।” ( मनु ११।२५४ ) १ प्रतिकारका अभाव, उपशमको शून्यता, दवाका प्रायश्चित्त-विवेकमें अनेक रूपसे अप्रतिग्राहा न पहुंचना, बदलेका न मिलना, रोकका न लगना। प्रदर्शित हुआ है। यथा,- (त्रि.) नञ्-बहुव्री। २ प्रतिकारहीन, प्रतिकार असत् शूद्रका ट्रव्य अप्रतिग्राह्य है। ज्ञानपूर्वक पहुंचानेमें अशक्य, लादवा, बेमदद, गैरमहफू ज । उसे दो बार ग्रहण करनेसे प्रायश्चित्त चान्द्रायण प्रभृति (अव्य०) अभावे अव्ययौ। ३ प्रतिकारके अभाव, करना कर्तव्य होगा। अज्ञानपूर्वक वैसा द्रव्य ग्रहण दवाके न पहुंचनेसे, रोक-टोक न होनेपर। करनेसे अई प्रायश्चित्त करना उचित है। सत्शूद्रादिके अप्रतिकारिन् (सं० त्रि.) १ प्रतिकार न पहुंचाते स्थल में जिसका अनादि भोजन करनेसे जो प्रायश्चित्त हुवा, जो तदबीर न लगा रहा हो। २ एवज न पहुंचे, प्रतिग्रह करनेसे भी वही प्रायश्चित्त पड़ेगा। लगाते हुवा, जो बदला न देता या लेता हो। परन्तु आपद्ग्रस्त होनेपर ब्राह्मण यदि शूद्रादिका अप्रतिकारी, अप्रतिकारिन् देखो। द्रव्य ग्रहण कर ले, तो वह दोषी नहीं ठहरता। अप्रतिकार्य ( स० वि०) दुश्चिकित्सक, बुरो दवा अर्थात् प्रतिग्रहको वस्तुको जलमें फेक अथवा देनेवाला। गुरुको अनुमति लेकर ब्रह्मचारोको दे देना चाहिये।