पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/६३४

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जहर न हो। अपविद्या-अपश्चात्तापिन् पिता यदि अपने पुत्रको त्याग दें और उसे यदि कोई | अपव्यय (सं० पु.) अपकृष्टः व्ययः प्रादि-तत् । पुत्र रूपसे ग्रहण कर ले, तो वह पुत्र अपबिद्ध कहा दुष्कर्ममें अर्थव्यय, धनादिका अपरिमित व्यय, जिसका जाता है। क्षय न हो, अविनश्वर, ज्यादा खर्च, बेकायदे खर्च, “मातापित्र्भ्यामुत्सृष्ट' तयोरन्धतरण वा। फज़ लखर्ची। थपुत्र' परिरकीयादपविद्धः स उच्यते।" ( मनुस'हिता १७१) अपव्य यमान (सं० त्रि०) अप-वि-अय-शानच् । अप- अपविद्या (सं० स्त्री०) प्रादि-तत् । अपकृष्ट विद्या, लाप करनेवाला, अपव्यय करनेवाला, फजू लखर्च । बौद्धादिको विद्या, वेदान्तादिकी प्रसिद्ध अविद्या, अपव्ययी (हिं. वि०) ज्यादे खर्च करनेवाला, बेकायदे खर्च करनेवाला, फजू लखर्च । खराब इल्म। अपविष (सं० त्रि०) विषरहित, विषशूना, जिसमें अपव्रत (सं० त्रि.) अपगतं व्रत नियमादिकं यस्य । अपगत व्रत, नष्ट व्रत, अपकृष्ट व्रत, हुक्म न मानने. अपविषा (सं० स्त्री०) अपगतं विषं यस्याः। निर्विषा वाला, बेदीन। नामको एक घास, तृणविशेष, वह चीज़ जो सब अपशकुन (सं० पु०) असगुन, कुसगुन, विषों को नष्ट करे। बुरा सगुन। अपविषा, अतिविषा, निर्विषा प्रभृति शब्दोंसे कौन | अपशङ्क (सं० त्रि.) अपगता शङ्का यस्य प्रादि- पेड़ समझा जाता है, इस वारेमें बहुत गोलमाल बहुव्रौ। निर्भय, शङ्कारहित, निःशङ्क, निडर। है। किसी किसीके मतसे आतइश (Aconitum अपशद, अपसद (सं० पु०) अप-शद सद वा कर्तरि heterophylum, Caltha Nirbisia Hamiltonii) अच् । नौच, अधम मनुष्य। पेड़को ही अपविषा आदि नामसे पुकारते हैं। वन अपशब्द (सं० पु०) अप अपकष्टः शब्दः। प्रादि- Feet ( Curcuma aromatica ), azt (Curcuma तत्। व्याकरणदुष्ट शब्द, असंस्कृत शब्द, ग्राम्य भाषा, zodoaria ), faget ( Cissampelos pareira ), आभीरादि नीच जातियोंको भाषा, अपभ्रंश शब्द, खेतगोतुवी ( Kyllingia monocephala) प्रभृति बुरीबात, गाली, अर्थहीन शब्द, अपान वायुका वृक्ष अपविषा आदि नामसे प्रसिद्ध हैं। राजनिघण्टमें छूटना, गोज़। अपविषा शब्दके पर्यायमें निर्विषा ढण, विषहा, | अपशव्य (सं० त्रि.) पशवे हितं पशु हितार्थे यत् । विषापहा, विषहन्त्री, विषाभावा, अविषा, विषवैरिणी पशव्यं न पशव्यम्, नञ्-तत् । पशुद्धिविघातक, पशुको लिखा हैं। वृद्धि रोकनेवाला। सचराचर हम लोग मुता जैसी एक तरहको | अपशम (सं० पु.) अन्त, आखिर, ठहराव । घासको अपविषा किम्बा निविषा कहते हैं। मुताको अपशिरस् (सं० त्रि.) शिररहित, बेशिर, कवन्ध । जड़में जिस तरहको गांठें होती हैं, निर्विषामें वैसी | अपशु (स'• पु०) न पशः अप्राशस्ते नञ्तत्। गो नहीं होती। राजनिघण्टके मतसे यह कट और अख भिन्न पश, पशुहीन, गाय और घोड़े को छोड़कर शीतल होती है। इससे कफ, वात, व्रण, रक्तदोष और और पशु। और नाना प्रकारके विष नष्ट हो जाते हैं। अपशुच् (स'० त्रि.) अपगता शुक् शोको यस्य । अपवत (सं० वि०) अप-वृत-त । समाप्त, विपरीत, प्रादि-बहुव्री । अपगत शोक, शोकहीन आत्मा। उलटा, खुला हुआ। अपगतः शोको यस्य प्रादि-बहुव्री० । शोकशून्य आत्मा, अपवेध (सं० पु.) अपकृष्टः वेधः, अशोकवृक्ष। किसी चीजको जहां वेधना चाहिये वहां न वेधकर| अपश्चात् (सं० अव्य०) न पश्चात् । पौछे नहीं। दूसरी जगह वेधना। अपश्चात्तापिन् (सं० त्रि०) न पश्चात् तपति पश्चात् प्रादि-तत् ।