पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/६३२

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

ततः अपर्याय-अपवर्तन तत्। अपरिच्छेद, असामर्था, अयोग्यता, अपूर्णता, इच्छायां वा ताच्छील्यादिषु कर्तरि घिणम् । अनुचित त्रुटि, कमी। विषय-लालसायुक्त, कुत्सित कान्तियुक्त । अपर्याय (स.पु.) न पर्यायः, नत्र-तत्। परि- अपलाषुक (सं० वि०) अप-अपकर्षे लष-ताच्छो- पाटीका अभाव, अनवसर, अक्रम, क्रमका अभाव, ल्यादिषु कर्तरि उकञ् । अनुचित धनष्णायुक्त । अनुपूर्वीका अभाव, अनुक्रमका अभाव, परिपाट्या- | अपलालन (सं० लो०) न पलपलनं पवित्र करणं दिशून्य, बैसिलसिला, बेढङ्ग। अदन्त-चुरा०-लुपट्, नत्र-तत्। सानादि मार्जनहारा अपयुषित (स.त्रि०) न पर्युषितम्, नत्र-तत्। शोधनाभाव, नहा धोकर साफ न होना। अभिनव, सद्योजात, वासी नहीं, टटका, ताज़ा । अपलोक (सं० पु०) अपकोति, अपवाद, अपयश, अपवक (सं० त्रि०) विना गांठ वा जोड़का। बदनामी। अपर्वदण्ड (स० पु०) नास्ति पर्व ग्रन्थिय॑स्य । स अपवत् (सं० वि०) अप-कर्म तदस्तास्य मतुप् वेदे दण्ड इव उपमितस। रामकृष्ण नामक शर, राम स लोपः मस्य वत्वञ्च । कर्मयुक्त । बाण। उनके दण्डमें गांठ न रहनेके कारण ऐसा नाम अपवन (सं० लो०) अपकृष्टं स्वल्पत्वात् वनम् । पड़ा। २ एक किस्म का ऊख । प्रादि तत्। उपवन, कृत्रिमवन, बाग विना हवाका। अपर्वन् (स० क्लो०) न पर्व नञ् -तत् । पर्वभिन्न ; अपवरक (सं० पु०) अपवियते अप-व-अप् चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या, पूर्णिमा यह सब संज्ञायां वुन्। अन्तर्यह, गर्भागार। शयनास्पद, तिथियां और इनके अतिरिक्त संक्रान्ति पर्व। २ ग्रन्थि बीचको कोठरी। शून्य दण्डादि, विना गांठको लाठी वगैरह। ३ परि- अपवरण (स० ली.) अप- भावे लुट् । च्छेदशून्य ग्रन्यादि। वरण, आवरण दूर करना। "चतुई श्यष्टमी चैव अमावस्वाथ पूर्णिमा । अपवर्ग (सं० पु.) अपज्यते कर्मसूत्रं त्यज्यते यत्र पर्वाण्ये तानि राजेन्द्र रविसक्रान्तिरेव च ॥” (स्म ति ) अप-वृज-धज कुत्वम् । मोक्ष, मुक्ति, त्याग, दान, कर्म- अपल (सं० लो०) अप अपक्रम लाति गृह्णाति फल, फलप्राप्ति, क्रियाका साफला, क्रियान्त, कार्य- (निवारयति ) येन यस्मिन् वा अप-ला करणे अधिः समाप्ति, पूर्णता। करणे वा क । १ पलायननिवारक लाठी, गोंज, कोलक। अपवर्जन (सं० लो०) अप-वृज-लुपट्। दान, २ चार तोलासे न्यून परिमाण। (त्रि०) ३ मांसहीन । मोक्ष, त्याग, निर्वाण । अपलक्षण (स क्लौ०) दुष्ट लक्षण, कुलक्षण, दोष, अपवर्जित (सं० त्रि०) अप-वज-त। त्यक्त, दत्त, खराब चिह्न। परिहृत, छोड़ा हुआ, छुटकारा पाया हुा । अपलाप (सं० पु. ) अप मिथयाभूतं तप्यते अप-लप अपवर्तक (सं• त्रि०) अप वृत-णिच् खुल् । (measure) भावे घञ्। १ स्थित पदार्थको भी अस्थित रूपसे जिस राशिसे दूसरी दो वा उससे अधिक राशिको भाग कहना, निश्चय अस्वीकार करना, मिथयावाद, वक देनेपर भागावशिष्ट कुछ भी नहीं रहता, उसे इन सब वाद, छिपाव। २ स्नेह। ३ प्रेम। ४ कन्धे और राशियोंका अपवर्तक कहते हैं ; जैसे २ अङ्क ६ और पसुलियोंके मध्यका भाग । ८ अङ्कका अपवर्तक है। कारण, ६ और ८ को से अपलाल (सं० पु.) एक राक्षस वा नागका नाम । भाग देनेपर कुछ भी नहीं बचता। अपलाश (सं० त्रि०) अपर्य, विना पत्तेका । अपवर्तन (सं० लो०) अप-वृत-णिच-ल्युट । परि- अपलाषिका (सं० स्त्री०) अप-लष इच्छायां पयाये | वर्तन, आन्दोलन, संक्षेप, लाघव, अपहरण, उलट खु च, प्रादि-स० । तृष्णा, अतिलालसा। फेर, अङ्कशास्त्रके मतसे भाज्य भाजक दोनोंको तुल्य अपलाषिन् (सं० वि०) अप-अपकर्षे लष कान्ती रूप किसी अकसे भाग देना। अना-