पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/६३१

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अपरिहार-अपर्याप्ति ६२५ शक्यार्थे अणीयर् न परिहणीयम्, नञ्-तत् । तकाले जीविका यस्याः, नञ् बहुव्री। पार्वतो, परिहारके अशक्य, अयोग्य, छोड़ने लायक नहीं दुर्गा, । 'अपर्णा पार्वती दुर्गा । (अमर) दुर्गाने गिरिराजके अत्याज्य, आदरणीय, अनिवारित । यहां जन्म लेकर शिवके लिये तप करते समय सूखे अपरिहार (सं० लो०) अनिवारण, अवर्जन। पत्तोंतकका खाना छोड़ दिया था। अपरिहारित (सं० त्रि.) अनिवारित, अवर्जित, “वदन्तेऽपर्णेति च तां पुराविदः।” (कुमार ५२८) अत्याज्य। इसीसे पुराविद् पण्डितगण उन्हें अपर्णा भी अपरिहार्य (सं० त्रि.) परिहर्तुं शक्यं परि-हृ कहते हैं। शक्यार्थे णात् न परिहार्यम् नञ्-तत्। परिहारके हरिवंशमें लिखा है, कि मेना पिटगणको मानस- अशक्य, त्यागके अयोगा, छोड़ने लायक नहीं, अनि कन्या हैं। हिमालयके साथ उनका विवाह हुआ वार्य, अवर्जनीय, अत्याज्य, आदरणीय। था। फिर हिमालयके औरस और मेनकाके गर्भसे अपरीक्षित (सं० त्रि०) परि-ईक्ष-क्त न परीक्षितं अपर्णा, एकपर्णा और एकपाटला नानी तीन कन्या सम्यगालोचितम् नत्र-तत्। जिसकी परीक्षा न को उत्पन्न हुई। उन तीनों बहिनोंने कठिन तपस्या गई हो, जिसकी जांच न हुई हो। प्रारम्भ कर दी। एकपर्णा पेड़का केवल एक पत्ता अपरौत (सं.वि.) परि-इण-क्त न परीतम्, नञ् - खाती थीं, इसीसे उनका नाम एकपर्णा हुआ। सबसे तत्। जो सब दिशाओं में व्याप्त न हो, अपरिगत, छोटी बहिन एकपाटला प्रतिदिन एक पाटला फल अप्राप्त। खाकर रहती थों, इसीसे लोग उन्हें एकपाटला अपरुष (सं• त्रि.) अप अपगता रुट क्रोधो यस्य । कहने लगे। किन्तु सबसे बड़ी अपर्णा एक पत्ता प्रादि बहुव्री०। विगतक्रोध, जिसके क्रोध न हो, भी न खाती थी, इसलिये उनका अपर्णा नाम हुआ। क्रोधरहित। कन्याको ऐसौ कठिन तपस्या देखकर मेनका अपरुष (सं० क्लो०) न परुथ निष्ठुरम्, नञ् बहुत दुःखित हुई। माता सन्तानका दुःख नहीं तत्। अनिष्ठुर, ग्रन्थिशून्य, गवरहित, विना गांठका, देख सकती, इसलिये उन्होंने कन्याके निकट जाकर क्रोधरहित। कहा-'उमा'-तुम ऐसा मत करो। तबसे अपर्णाका अपरूप (सं० लो०) अप-उत्कृष्टम् आश्चर्य वा नाम उमा हुआ है। महादेवके साथ अपर्णाका रूपम् प्रादि-स०। १ आश्चर्यरूप, सुन्दर रूप । २ सुन्दर विवाह हुआ था, असितदेवलने एकपका और रूपयुक्ती, सौन्दर्यशाली। ३ कुरूप, कुत्सित । जैगीषव्यने एकपाटलाका पाणिग्रहण अपरद्युस् (सं० अव्य०) अपरस्मिनहनि एद्युस् । २ पत्रशून्य लतादि । दूसरे दिन। अपतु ( स० त्रि०) अप अपगत ऋतुर्यस्य । प्रादि- अपरोक्ष (सं० अव्य.) अक्षणः परं परोक्ष न परोक्ष बहुव्री०। १ जिस देशमें वसन्तादि सब ऋतु नहीं मपरोक्षम् नञ्-अव्ययो । प्रत्यक्ष, विषयेन्द्रिय-सन्नि हैं। (स्त्री०) २ अपगत-रजस्का स्त्री, जो स्त्री रजस्वला कर्पोत्पन्न ज्ञान, परब्रह्म, । (त्रि०) २ प्रत्यक्षका विषय । नहीं होती। अपरोक्षानुभूति (सं० स्त्री०) अपरोक्षा चासौ अनु अपर्यन्त (सं० त्रि.) नास्ति पर्यन्तो मर्यादा यस्य । भूतिश्चेति कर्मधा। प्रत्यक्षरूप ज्ञान, वेदान्तका नञ् बहुव्री। असीम, इयत्तारहित। प्रकरण विशेष अपर्याप्त (सं० त्रि.) परि-आप-ता, नज-तत् । अपरोध (सं० पु.) अप-रुध भावे घञ् । रुद्ध अयथेप्सित, असमर्थ, अपूर्ण, खकार्यमें अक्षम, अपरि- करना, रोक, बन्दी। च्छिन्न, इयत्तारहित, अयथेष्ट, जो काफी न हो। अपर्णा (सं० स्त्री.) नास्ति पलं गलितपत्रमपि । अपयाप्ति (सं० स्त्रो०) न पर्याप्ति अभावे नज- 157 । किया। 1