पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/६२६

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अपरपञ्चाल-अपराजिता 1 है। अश्वयुक् कृष्णपक्ष, प्रेतपक्ष, पिपक्ष। अपर हेमन्त भावार्थे इण् नलोपः उत्तरपद वृद्धिश्च। हेमन्तके पक्षके बादमें कई कल्प हैं एवं उनकी प्रति तिथिमें अन्तमें उत्पन्न, शेष हेमन्तमें उत्पन्न । तर्पण करना पड़ता है। अपरान्त (सं० पु.) १ पश्चिमीय सीमाका रहनेवाला। अपरपञ्चाल (सं० पु०) पश्चिमीय पञ्चाल। पञ्चाल देखो। २ प्राचीन जनपदभेद, वर्तमान गुजरात प्रान्त अपरपर (स त्रि.) एक और दूसरा, कई। ३ पश्चिमीय सीमा, मृत्यु। अपरबल (सं० त्रि.) उद्धत, बली, बलवान् । अपरान्तक (सं० पु०) पश्चिमदिशाका एक पर्वत अपरभाव (सं० पु०) सिलसिला, कतार, लगातार। अपरान्तिका (स. स्त्री०) वैताली छन्दका एक भेद । अपररात्र (स० पु०) अपर रात्रेः एकदेशि तत् अपरा (स. स्त्री०) पिपति शुक्र यथावत् पालयति अच्-स०। रात्रिका शेष, रात्रिका शेषभाग, रातका पृ पालने कर्तरि अप् स्त्रीत्वात् टाप् परा, नास्ति पिछला हिस्सा। परा शुक्रप्रतिपालिका यस्याः । नञ्-बहुव्री। अपरलोक (सं० पु० ) स्वर्ग, दूसरा लोक, परलोक। १ जरायु, जिसको अपेक्षा शुक्रप्रतिपालिका स्थान और अपरव (सं० पु.) अपकृष्टो रवः अप-क-अप् । नहीं है। २ उदयाचलसे अधिक दूरवर्ती पश्चिम दिक प्रादि-स। अपकीर्ति, अपयश, बदनामी। जिसको अपेक्षा और श्रेष्ठ नहीं है। अपरवक्त्र (सं० लो०) अपरं वक्तात्। वक्तसे भिन्न | अपराग (स० पु०) रञ्जनं रज्यतेऽनेन वा रज भावे वृत्त, एक प्रकारका छन्द। छन्दोमञ्जरीमें लिखा करणे वा घञ् न लोपो वृद्धिः कुत्वञ्च । अप अपगतो. हुआ अईसमवृत्तविशेष। रागः, प्रादि-स। विराग, लोहितादि रङ्गहीन, "अयुजिननरला मुरुः समेतदपरवमिद नजी जरौ।" (छन्दोमञ्जरो।।४) गान्धारादि रोगरहित, क्लेशरहित, अनुरागशन्य, जिसके प्रथम और तृतीय चरणमें ननरल गण मत्सरहीन। रहता है, उसके बाद एक अक्षर गुरु होता है। अपराग्नि (सं० पु.) अपरश्च अग्निश्च इन्द २-व०। सममें अर्थात् द्वितीय और चतुर्थ पदमें न ज जरमण गाहपत्य अग्नि एवं दक्षिणाग्नि, अन्तेष्टि- रहता है। इसलिये उसे अपरवक्तवृत्त कहते हैं। क्रियाको अग्नि, दूरको आग, निकटको आग, पश्चिम अपरवर्षा (स. स्त्री०) वर्षाका अन्तिम भाग, दिशाको आग। बरसातका पिछला हिस्सा । अपराङ्ग (सं० ली.) अपरस्य रसादेरङ्ग, ६-तत्। अघरवश (हिं० वि०) पराधीन, दूसरेके वशका। गुणीभूत काव्यविशेष। अपरवैराम्य (स० क्लो०) विरागे भवं विराग अपराङ्मुख (सं० वि०) पराक् मुखं यस्य तत् भावार्थे यत् ततोऽपरञ्च तत् वैरागाञ्चेति कर्मधाः । पराङ्मुख ततो नज-तत्। अनिवृत्त, जो कत्त व्य और एक वैरागा, पतञ्जलि मुनिका कहा हुआ विषयसे विमुख न हो। वैरागा विशेष। अपराच (सं० त्रि०) परा अञ्चति निवत्त ते परा- अपरस (हिं० वि०) अस्पृश्य, जो छूने लायक न अञ्च-क्विन् न लोपे पराच । न पराच नज-तत् । हो, जिसे किसीने छुआ न हो। अनिवृत्त, अपराअख। अपरस्पर (सं० वि०) पर कर्मव्यतिहार (एक अपराजित (सं० पु०) परा-जि-क्त न पराजितः जातीय क्रियाकरणे) हित्वं पूर्वपदे सुः कस्कादि. नज-तत्। १ विष्णु । २ शिव । ३ ऋषिविशेष। विसर्ग सत्वच्च। ततो न परस्पर नञ्-तत्। परस्पर ४ दूर्वा । ५ शेफालिका । ६ जयन्तीवृक्ष ।७ असनवृक्ष । नहीं, एकके बाद दूसरा, लगातार, सिलसिलेवार । ८ शङ्खिनी वृक्ष। ८ हवुषा वृक्ष। १. अशनपर्णी। अपरहेमन्त (संपु०) जाड़ेका पिछला हिस्सा। (त्रि०) ११ जो पराजित न हो। अपरहैमन (सं० वि०) अपर हेमन्ते भवम् अपर अपराजिता (स. स्त्री०) न पराजिता, नञ्-तत्।