पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/६२५

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अपरजस्क-अपरपक्ष अपरता अपनापन । हिस्सा। भाव। अपरजस्क (सं० वि०) अपगत रजो-रेणु-धूलि: होनेसे ज्येष्ठ परत्व-ज्ञान और कनिष्ठ अपरत्व-ज्ञान रक्त गुणविशेषो वा यस्य यस्माद्दा। प्रादि-बहुव्री० । होता है। दैशिक परत्वापरत्वको उत्पत्ति सूर्य पदार्थमें शेषाद्देति कप् । रेणुरहित, धूलिशन्य, रजोगुणवर्जित, होती है। कालिक परत्व वा अपरत्वको उत्पत्ति ऋतुरहित (स्त्री)। जन्य पदार्थमें होती है। इसलिये उसका समवायि- अपरतन्त्र (हिं० वि०) स्वाधीन, स्वतन्त्र, जो पर कारण मूर्त और जन्य है। असमवायि-कारण वश न हो, आज़ाद। मूर्त के साथ पूर्वादि दिशाओंका संयोग और जन्यके (सं. त्रि.) परायापन, साथ कालका संयोग, निमित्त कारण पूर्वोक्त भूयस्त्व- अपरताल (सं० पु.) रामायणोक्त हिमालयस्थ ज्ञान है। एवं अपेक्षा-बुद्धिका नाश होनेसे इस जनपद भेद। परत्वापरत्वका नाश होता है। अपरति (सं० वि०) अपगता रतिः रागो रतं वा अपरदक्षिण (सं० त्रि.) अपरा च दक्षिणा च यस्य, प्रादि बहुव्रीः। अनुरागश न्य, मैथुनरहित, अव्ययौ। नैऋत कोण, पश्चिम और दक्षिणके विरति, विराग। मध्यका कोण। अपरतौ (सं० त्रि०) स्वार्थी, मतलबका यार । अपरदिशा (स' पु०) पश्चिम । अपरत्र (सं० त्रि.) अपरस्मिन् काले देशे वा अपर अपरनिदाघ (सं० पु.) ग्रीष्म ऋतुका पिछला बल। अपरकालमें, अपर देशमें, दूसरे समयमें। अपरत्व (सं. क्लो) अपरस्य भावः अपर भावे व । अपरपक्ष (सं० पु०) अपरश्चासौ पक्षश्चेति कर्मधा। अपरका भाव, अपरका धर्म, दूसरेका धर्म, दूसरेका शेष पक्ष, कृष्णपक्ष, प्रतिवादी, मुद्दालेह। वैशेषिक गुण विशेष । परत्व और कृष्णपक्षको किसी तिथिमें श्राद्ध किया जा सकता अपरत्व दो प्रकारके हैं,-दैशिक और कालिक। है, पर अमावस्याके दिन श्राद्ध करनेसे विशेष फल दैशिक परत्व दूरत्व और दैशिक होता है। पूर्वः पक्षो देवानामपर: पक्षः पितृणाम् ।' (अति ) निकटत्व है। दैशिक परत्वापरत्वको उत्पत्ति अधिक शुक्ल पक्ष देवताओंका और कृष्णपक्ष पितृगणका है। सूर्यसयोग व्यवधान ज्ञान और अल्प सूर्यसंयोग ब्रह्माने पहले शुक्लपक्ष बनाया और उसके बाद व्यवधान-ज्ञान होनेसे होती है। जैसे पाटलिपुत्रसे कृष्ण पक्ष, इसौसे इसका नाम अपर पक्ष हुआ है। काशीको अपेक्षा प्रयाग पर अर्थात् दूर है। एवं ब्रह्मपुराणमें लिखा है- पाटलिपुत्रसे कुरुक्षेत्रको अपेक्षा प्रयाग अपर अर्थात् "चवमासि जगदब्रह्मा ससर्ज प्रथम ऽहनि । निकट है। यहां काशी और पाटलिपुत्र इन दोनोंके शुक्लपचे समग्रन्तु तदा सूर्योदये सति ॥" मध्यमें जितना सूर्य संयोग है, पाटलिपुत्र और प्रयाग चैत्र मासमें सूर्य उदय होनेपर शुक्ल पक्षको के मध्यमें उसको अपेक्षा अधिक सूर्यसंयोग है, प्रतिपदको ब्रह्माने समस्त जगत्को सृष्टि की थी। इसलिये पाटलिपुत्रसे काशीको अपेक्षा प्रयागमें परत्व पित्रोद्देश्यक दानाय नास्ति परः श्रेष्ठो यस्मात् स जान हुआ एवं पाटलिपुत्रसे कुरुक्षेत्रको अपेक्षा चासौ पक्षश्चेति। मुख्यचान्द्र भाद्रका कृष्ण पक्ष एवं प्रयागमें अपरत्वज्ञान हुआ। कालिक परत्व और गौणचान्द्र आखिनका कृष्णपक्ष है। अपरत्वको उत्पत्ति अधिक सूर्यक्रिया-व्यवहित उत्पत्ति "नभस्यस्यापरे पक्षे याई कुहिने दिने । ज्ञान और अल्प सूर्य क्रिया-व्यवहित उत्पत्ति-ज्ञान नैव नन्दादिवज स्वान्न व वजा चतुर्दशो ॥" (चानिनि) होनेसे होती है। जैसे कनिष्ठको उत्पत्ति-कालमें भाद्र मासके कृष्णपक्षको प्रति तिथिमें श्राद्ध करना जितनी सूर्यक्रिया हुई है उसको अपेक्षा ज्येष्ठको चाहिये। उसके नन्दा (प्रतिपद, एकादशी, और उत्पत्तिकालमें अधिक सूर्यक्रिया हुई है, यह नगर षष्ठीमें ) एवं चतुर्दशीमें भी श्राइ करना मना नहीं अपरत्व