पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/५२१

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पड़ता है। ५१४ अनेकार्थ परशुराम और कातैवीयार्जुनका विरोध चिर बात कभी उचित नही हो सकती, इसलिये यहां प्रसिद्ध है। 'मुख' शब्दसे सम्मुखका अर्थ निकलेगा। अर्थशब्दसे प्रयोजनको समझते हैं। प्रयोजनको . देश अर्थात् स्थानको देख निश्चित कर सकते हैं, पाकर अनेक स्थल में शब्दका अर्थ निश्चित किया जाता कहां कैसा अर्थ सङ्गत पड़ेगा। जैसे, 'इस राज्यमें, है। जैसे, सुवास शब्दसे उत्तम वस्त्र और सुगन्धि परमेश्वर विराजते हैं। किन्तु यह कभी सङ्गत न द्रव्य दोनोका अर्थ निकलता है। स्नान करके यदि होगा, कि राज्यके भीतर सर्वनियन्ता परमेश्वर कोई सुवास लानेको कहे, तो उसका अर्थ वस्त्र हो विराजते हैं। इससे यहां परमेश्वर शब्दसे राजाका निकलेगा। फिर कोई यदि पूजा करने बैठ बोले, अर्थ आता है। फिर 'सर्वत्र परमेश्वर विराजते हैं', 'सुवास ले आयियें, तो सुगन्धादि ही समझ कहनेसे सर्वमय ईश्वर समझ पड़ेगा।। काल अर्थात् विशेष समयसे भी समझ सकते हैं, प्रस्तावका नाम प्रकरण है। प्रस्तावके भावको कहां कैसा अर्थ सङ्गत रहेगा। जैसे, 'चित्रभानु- देख शब्दका सङ्गत अर्थ समझते हैं। जैसे, राजाके विभाति दिने' अर्थात् दिनमें चित्रभानु चमकते हैं। समीप विचार होते समय वादी किंवा प्रतिवादीके चित्रभानु शब्दसे सूर्य और अग्नि दोनो समझ पड़ते मध्य यदि कोई बोल उठे, 'सर्वं जानाति देवः' यानीदेव हैं। किन्तु यहाँ 'दिन' इस शब्दका उल्लेख आनेपर सब समझते हैं, तो प्रस्तावका भाव देख देवशब्दका 'चित्रभानु' शब्दसे सूर्य का अर्थ हो सङ्गत लगता है। अर्थ कोई देवता नहीं,-राजा हो लगाना पड़ेगा। फिर यदि कहें,–'चित्रभानु रातको चमकते हैं, तो लिङ्ग शब्दसे चिह्न और लक्षणका अर्थ निकलता अग्निका हौ अर्थ सङ्गत होगा। । जैसे, 'कुपितो मकरध्वज'-यानी मकरध्वज व्यक्ति शब्दसे पुंलिङ्ग, स्त्रीलिङ्ग प्रभृति समझते कुपित हैं। सचेतन पदार्थ हो कुपित हो सकता हैं। शब्दका लिङ्ग देख निश्चित होता है, कहां कौन है। अतएव कोपका लक्षण लगा मकरध्वज शब्दसे अर्थ सङ्गत रहेगा । जैसे, 'मित्रम्भाति' अर्थात् मित्र मदनका ही अर्थ निकलना पड़ेगा। मकरध्वज डटे हैं। यहां मित्र शब्द लोवलिङ्ग है, इसलिये औषध किंवा अन्य कोई अर्थ नहीं आता। सुहृत्का मतलब निकलेगा। दूसरे, 'मित्रो भाति'- अन्य शब्दकी सबिधि परस्परका निकटस्थ सम्बन्ध यहां मित्र शब्द पुलिङ्ग है, सुतरां इसके द्वारा सूर्य है। जैसे, 'आचमनी, घण्टी, सम्पुटी।' इस जगह समझते हैं। आचमनी और सम्मुटीके समीप घण्टी शब्दका प्रयोग उदात्त, अनुदात्त और स्वरितका नाम स्वर है। पड़नेसे, इसके द्वारा पूजाके जलका लघु पात्र समझ मोटी बात यह है, कि शब्दविशेष पर ज़ोर देकर पड़ेगा। फिर 'घण्टी, झण्डी, सौटौ' इसतरह बोलनेपर मन्त्रादि पढ़नेसे भिन्न-भिन्न अर्थ आयेगा। इस विषय- घण्टौसे सचेत होनेको आवाज़ समझ पड़ती है। को एक कहानी सुनाते, कि उदात्त, अनुदात्त, खरित नियत शब्दको शक्तिको सामर्थ कहते हैं। जैसे, प्रभृति स्वरभेदसे विभिन्न अर्थ निकल सकता है। 'मधुना मत्तः कोकिलः' यानी कोकिल मधुसे मत्त पूर्वकालमें वृत्रासुरने इन्ट्रके वधको यज्ञ प्रारम्भ हो गया है। वसन्तकालमें ही कोकिल मत्त पड़ेगा। किया था। ऋत्विग्गण वृत्रकी श्रौढद्धिके लिये,- इसीसे यहां मधु शब्द वसन्तकालका द्योतक है, इसे 'इन्द्रशत्रुबंईख' यह मन्त्र बोलने लगे। मन्त्रको सुन मद्य किंवा फलका मधु नहीं समझ सकते। वृत्रने सोचा, यज्ञ हारा उसौका मङ्गल बनेगा। किन्तु - औचिती अर्थात् औचित्य इसतरह आता है वस्तुतः वैसा न हुवा। कारण, ऋत्विग्गण यदि 'यातु ते दयितामुखम्' यानी आपको प्रियाक मुख में 'इन्द्रशत्रुः' यह बोलते समय शत्रु शब्दपर जोर डालते, जाये। किन्तु 'आपको प्रियाके मुख में जाये' ऐसी तो 'इन्द्रका शत्रु ऐसा. तत्पुरुष समास लग वृत्रका