अनुमृता ४८१ अरुदत्योऽनमोवाः । अमीवा रोगः । तद्दज्जिताः, मानस पतिके द्वारा सन्तान उत्पन्न किया है। अतएव दुःखवज्जिता इत्यर्थः । सुरत्नाः शोभनधनसहिताः । तुम्हारा कर्तव्य कर्म हो गया, तुम उठ खड़ी हो। जनयः जनयन्तापत्यमिति जनयो भार्याः। ता अग्रे इसौ ऋक्के द्वितीय धरणका एक और भी अर्थ होता सर्वेषां प्रथमतः एव योनि ग्टहमारोहन्तु । आगच्छन्तु । जैसे-इस्तग्राभस्य-प्राणिग्रहणकारी की। "देवरादिकः प्रेतपत्नीसुनीर्थ नारीत्यनया भर्तृसका- | दिधिषोः-पुनर्वार विवाह करनेका इच्छुक । पत्य :- हत्यापयेत्।" सूत्रितञ्च । पतिका । इदम्-यही । जनित्वं-जायात्वम् । तव- इस जगह आखलायनका सूत्र उद्धृत किया गया, तुम्हारा । अभिसवभूथ-ठीक प्रकारसे योग्य हुआ है। आगे वह लिखा जाता है। अर्थात् पुनार जो तुम्हारा पाणिग्रहण करनेको इच्छा इमाः-यह सब, नारीः-स्त्री। अविधवाः करता है, उसकी भार्या होनेको तुम योग्य हुयी हो। सधवा हैं। सुपत्नीः-उत्तम पतियुक्ता। अञ्जनेन कृष्ण यजुर्वेद के अन्तर्गत तैत्तिरीय-आरण्यकमें ठीक जिससे अञ्जन तय्यार हो, उसके साथ। सर्पिषा ऐसा एक मन्त्र है। इस मन्त्रके शेषार्धमें कुछ भेद तके साथ। संविशन्तु-प्रवेश करें। अनश्रवः दिखाई देता है, किन्तु उससे कोई हानि नहीं होती। अश्रुरहित। अनमोवा-दुःखशून्य, सूरत्नाः-उत्तम- यथा- रत्नयुक्ता । आ-आ। रोहन्तु-आगमन करो । जनयः "इयं नारी पतिलीकरणाना निपद्यत उप त्वा मयं प्रेतम् । -भार्या । योनिम्-गृहे। अग्रे-प्रथम । विश्वं पुराणमनु पालयन्तौ तस्यै प्रजां द्रविणवह धेहि ॥१३॥ उदौष्वं नार्यभि जीवलोकमितासमेतमुपशेष एहि । सब सधवा स्त्री जिनके उत्तम पति है, अञ्जन- हस्तयाभस्व दिधिषोस्त्वमेतत् पत्य जनित्व मभिसंवभूव ॥ १४॥" घृत आंखोंमें लगा (अथवा घृत आदि लेकर) प्रवेश (तैत्तिरीय आरण्यक ६१३) करें। जिनके आंखोंमें आंसूका जल नहीं, मनमें सायणाचार्यका भाष्य-'अथास्य भार्यामुपसंवेशयति । हे 'मयं- दुःख नहीं, वह सकल रत्नभूषण भूषिता जायासमूह मनुष्य या 'नारौं' मृतस्य तव भार्या, सा 'पतिलोक' 'वृणाना' कामयमाना; पहले घरमें आये। 'प्रेत त्वां, 'उपनिपद्यते-समीपे नितरां प्राप्नोति । कोदृशौ ?-'पुराणं सायणाचार्य 'अग्रे' ऐसा पाठ रखकर सर्वेषां विव' अनादिकालप्रवृत्त' कृत्स्न' स्त्रीधर्म, 'अनुक्रमेण पालयन्ती',-पतिव्रतानां प्रथमत एव ; सबके पहिले-ऐसा अर्थ किया है, स्त्रीणां पत्या सहव वास: परमो धर्मः। 'त' धर्मपर्व, त्व' 'दह' लोक, इस जगह अग्निपाठ ग्रहण करनेसे ठीक अर्थ नहीं निवासार्थमनुज्ञां दत्वा, प्रजा पूर्वविद्यमानां पुवादिका, द्रविणं घनं 'च' होता। सधवा स्त्री क्यों अग्निमें प्रवेश करेगी? 'धेहि' सम्पादय अनुजानौहीत्यर्थः । १३ । त्वां प्रति गतः सव्ये पाणावभिपद्योत्वापयति। है नारि त्वइतासु"- "उदील नाभि जौवलोक' गतासमेतमुपशेष एहि । गतप्राणं, 'एत'-पति, 'उपशेष-उपेत्य शयनं करोषि, 'उदीन"-प्रख्यात हस्तग्राभस्थ दिधिषी स्तवेद' पत्यु ननित्वमभिस' बभूथ ॥" पतिसमीपात् उत्तिष्ठ, 'जीवलोकमभि'-जीवन्त', प्राणसमूहमभिलक्षा, (ऋक् १०१८) 'एहिं पागल । 'त्व" 'हस्सयाभव-पाणिग्राहालः 'दिधिषोः'- 'उदीष्व, नारि अभि, जीवलोकम्, गतासुम्, एतम्, उप, शेषे, एहि, पुनर्विवाहच्छीः पत्य :, एतत् 'जनित्व"-जायात्व', 'अभिसम्बभूव'- तयाभस्य, दिधिषोः, वव, इदं, पत्यु :, जनित्व' अभि, सम्, वभूथ । है नारि भाभिमुख्य न सम्यक् प्राप्त हि । १४ ।' मृतस्य रवि ! जोवलोकं जीवानां पुत्रपौवादीनां लोकं स्थानं एहमभिलच्यो- हे मनुष्य ! इस नारीने पतिलोकको कामना लगा दौष्वं अस्माम् स्थानाह तिष्ठ । ईर मतौ पादादिकः । गनासुमपकान्तप्राणमेत निकट आगमनपूर्वक मरे हुये तुमको सम्यक् रूपसे पन्तिमुपशेष। तस्य समीपे स्वपिषि। तस्मात् स्वमेहि-मागच्छ । यस्मात् त्व हस्तन्याभस्य पाणिग्राहं कुर्वतो दिधिषोर्गर्भस्य निधातुस्वास्थ पत्य : सम्बन्धा- प्राया, चिरकाल स्त्रीधर्म पाला है। इसे इहलोकमें दागतमिद जनित्व जायात्वमभिलक्ष्य संवभूथ सम्भृतास्य सुसरनियध ठहरनेके लिये अनुमति निकाल प्रजा और धन मकााँस्तस्मादागच्छ।' (सायण) है दो। १३ । हे नारि ! उठो, तुम जीवित मनुष्यके पास थानो। हे नारि। तुम मृतपतिके पास पड़ी हो; यहांसे तुम अपने मृत पतिक पास सोयो हो। सबने अपने मात्रोखान करो। जीवित प्राणीके निकट तुझे 121
पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/४८८
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