४७८ अनुमरण , टेइनवाच (Col. Henry Steinbach ) और डाकर कि सन् १८१७ ई० में अकेले बङ्गाल-विभागके मध्य हनिगवर्जर (John Martin Honig berger) इस ७०६ स्त्री अनुमृता हुयी थीं। सन् १८१८ ई में सहमरणके समय श्मशानमें उपस्थित रहे। लाहोरके ८०० और १८२३में ५७५ स्त्री पतिके साथ जल मरों, हजारीबाग में महाराजको अन्त्येष्टिक्रिया सम्पन्न हुयी जिनमें २३४ ब्राह्मण जाति, ३५ क्षत्रिय जाति, १४ थी। मृत्यु के दूसरे दिन प्रधान-प्रधान सरदार और वैश्य जाति और २८२ शूद्रजाति थीं। इन ५७५ अनुचरने अगुरु और चन्दन काष्ठसे चिताको रचा स्त्रीमें १०८ वृद्धा रहीं, उनका वयस साठ वत्सरसे और उसके ऊपर धूप, गुग्गुल, कृत और बिनोला अधिक हो गया था। २२६ स्त्रीका वयस साठ डाल दिया। उधर किलेमें महाराजको मृतदेह | वत्सरसे कम और चालीससे ज्यादा रहा, २०८ का नौका-जैसे किसी झूलनेपर ढंकी हुयी रखी, जिस वयस बीस वत्सरसे चलीस पर्यन्त पहुंचा होगा। की चारो ओर सुनहलो कमख्खाब और कश्मीरी | बाको ३२ स्त्री बिलकुल बालिका थों। शालको पताका फहरा रही थी। अन्त्येष्टिक्रियाका भारतवर्ष में चारो ओर उस ममय सहमरणको सकल आयोजन लगाया गया। संसारचंदको कन्या धूम पड़ गयौ हतभाग्य हिन्दूमहिलावोंके आंसू महाराजको प्रियमहिषी रहीं। वह चूंघट उघाड़कर पोछनेवाला कोई न था। सतीदाह अंगरेज़ नहीं दोनवेशमें अपने महलसे निकल धीरे-धीरे मृतपतिको मानते। किन्तु न मानते भी गवर्नमेण्ट हिन्दू धर्मपर ओर आगे बढ़ीं। दोनो ओर, सामने और पीछे बात इसलिये न लड़ा सकती, कि पीछे सन्धिके भङ्ग कोई सौ आदमी उन्हें घेरे थे। एक ओर एक होने का डर रहा। जोन्स साहबने एक बार सह- व्यक्ति सन्दूक हाथमें लिये जाता, राणी उससे मरणके विरुद्ध न जाने क्या दो-एक बात कही थी, मूठ-मूठ भर मणिमुक्ता निकाल दरिद्रको दे देती। उसी अपराधपर वह भारतवर्षसे निकाल बाहर किये सामने दूसरा आदमी हाथमें दर्पण पकड़े पीछे पैरों गये। सन् १८०५ ई में सतीदाह रोकनेके लिये एक हठते चला जाता था, राणो अग्रसर होती और एक बार चेष्टा चली थी। किन्तु हिन्दू अपने धर्म जानेका बार उसी दर्पणमें अपना मुख देख लेती। दर्पणमें शोर मचा बिलकुल उससे सम्मत न हुये, इसीसे मुख देखनेका यह कारण रहा,-निकटमें भीषण उस बार सब काम बिगड़ गया। मृत्यु थो, अतुल ऐवयेश्वरी हो वह खुशी-खुशी आगमें उसी समय राजा राममोहन रायने बङ्गाल देशमें कूदने जाती थीं ; उससे मुखचन्द्रपर कहीं कालिमा बड़ी हलचल डाल दी थी। लोगोंका कुसंस्कार छुड़ाना न दौड़ती, भयसे मूर्तिका वैलक्षण्य न बनता। ही उस नीतिवीरके जीवनका व्रत रहा। सन् १८१७ मरालमन्थरगमनसे टहलते-टहलते मृत राजाके और १८१८ ई० में उन्होंने सहमरणके विरुद्ध दो पास वह जा पहुंचों। वाहक फिर शवको कन्ध पर पुस्तक निकाले थे। सन् १८२७ ई में उन्होंने फिर रख रवाना हुये, राणीको पालको पीछे-पीछे चली। दूसरा पुस्तक लिखा। उस समय लार्ड विलियम सात दासी पैदल धौर-धौर गमन करती थीं। वेण्टिङ्ग भारतवर्षके बड़े लाट रहे। वह निहायत चिताके पास पहुंच विधिपूर्वक प्रेतपिण्डादि देने सदाशय और लोकहितेषी व्यक्ति थे। उनका यह बाद सरदारने चितापर शवको लेटा दिया। राणी प्रधान सङ्कल्प बना,-किसी न किसी तरह. सतीदाह चितापर चढ़ राजाके मस्तक और दासी पैरों के पास जरूर बन्द करेंगे। इधर महात्मा द्वारकानाथठाकुर, पड़ रहीं। शेषमें सकलको शरमुञ्जमय चटाईसे ढांक राजा राममोहन राय और तेलिनौपाड़ा-निवासी ठोक चिताके चारो कोणपर आग लगायी गयी। यह अबदाप्रसाद वन्द्योपाध्याय उनके पृष्ठपोषक बने। चिता क्रमसे दो दिन जलते रही थी। कालरात्रि बीत गयो, भारतको सौभाग्यलक्ष्मीने पुलिसकी पुरानी रिपोर्ट देखनेसे मालूम पड़ता, विधवाको ओर घूमना चाहा,-सन् १८२८ ई० को
पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/४८५
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