पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/४०५

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अनन्तव्रत-अनन्तश्री पुरुष और स्त्री दोनोका अभिलाष पूरा किया करता लोग कहते हैं, कि अनन्तव्रतके डोरेको पकड़ है। इससे मालूम होता है, कि पुरुष और स्त्री दोनो शीत नीचे उतरता, अर्थात् इसी दिनसे शीत पड़ने ही इस व्रतको रख सकते हैं। भाद्रमासको शुक्ल लगता है। चतुर्दशीको इस व्रतका अनुष्ठान करनेसे सब पाप छूट अनन्तशक्ति (स• पु० ) अनन्ता अपरिच्छिन्ना शक्ति- जाते हैं। कुशका अनन्त बना घटके ऊपर रखना यस्य, बहुव्री। १ विष्णु। २ किसी राजाका नाम । चाहिये। फिर, भक्तिभावके साथ गन्ध, पुष्यादि, नाना (स्त्री०) कर्मधा । ३ अपरिमित बल, बेहद ताक़त । विध नैवेद्य, चतुर्दश फल और जलजात केशरादिके अनन्तशयन-मन्द्राज-कृष्णा जिमैके उण्डवल्लो स्थानका मूल द्वारा उसी अनन्तको पूजा करे। पीछे यव, गेहूं प्राचीन विष्णुमन्दिर और तीर्थ। यह मन्दिर या चावलके आटेसे धौमें दो पुये पकाये, जिनमें एक चार खण्डका चटान काटकर बनाया गया है। इससे अनन्तदेवपर चढ़ाये और दूसरा आप खा जाये। हिन्दुओंको सन् ई०के ७ वें या ८ वें शताब्दवाली पुत्रा खानेसे पहले कर्पासके सूतका एक डोरा कारोगरौका पता लगता है। कहते हैं, कि इसे कुङ्कुम या हरिद्रासे रंगे और विष्णुके नामसे चौदह चालुक्योंने कल्याणोंसे खुदवाकर बनवाया था। तीसरे गांठ लगाकर पुरुष दक्षिण और स्त्री वाम बाहु पर खण्डमें विष्णु भगवान्को बहुत बड़ी और लेटी हुई ले। मूर्ति पत्थरपर खुदी है। मन्दिर में तीन जगह शिला- विष्णुके पूजने और अनन्त बांधनेका मन्त्र रत्ना लेख मिलता है। दोमें तो कोई तारीख नहीं ; जो करमें यों लिखा गया है,- लोगोंने उत्सर्ग किया, उसकी बात लिखी है। तीसरे में "अनन्तस'सार-महासमुद्रे मनान् समभ्युद्धर वासुदेव। तारीख. मौजूद है, किन्तु पढ़ी नहीं जाती। उसमें अनन्तरूपे विनियोजयस्व अनन्तरूपाय नमो नमस्त ।" रुडडीके उत्सर्गका हाल मिलता है। 'हे वासुदेव ! अकूल संसाररूप महासमुद्रमें हम अनन्तशौर्षा (सं० स्त्री०) १ अनन्तानि बहनि मग्न हो गये हैं, हमें उद्दार कोजिये और अपने शौर्षाणि यस्याः, बहुव्री । वासुकिकी पत्नी, जिनके अनन्तरूपमें मिला लीजिये अर्थात् मुक्ति दीजिये। असंख्य फण हैं। (पु.) २ वासुकि, सर्पो के राजा । हे अनन्तरूप ! हम आपको नमस्कार कर रहे हैं।' ३ ऋग्वेद, सामवेद और अथर्ववेदके बताये हुए पुरुष । और देखिये,- अनन्तशुष्म (वै० त्रि.) १ अनन्तशक्तिशाली, बेहद "पाप पापकर्माहं पापात्मा पापसम्भवः । ताकत रखनेवाला। २ असोम रूपसे बहता हुआ, जो बेहद बहते चला जाये। (स्त्री०) अनन्तशुष्मा । बाहि मां पुण्डरीकाक्ष सर्वपापहरी भव । अद्य मे सफल' जन्म जीवितञ्च सुजीवितम् । अनन्तश्री (स० पु.) अनन्ता अपरिमिता श्रीः यत्तवाङ प्रियगाम्जाये मन्म र्धा भमरायते ॥" पराशक्तिरस्य, बहुव्रौ। १ परमेश्वर। 'हे पुण्डरीकाक्ष ! हम सदा पापकर्म किया करते शोभा त्रिवर्गसम्पत् वेशरचना वा यस्य । २ विष्णु । और पापबुद्धि हैं, हमारा जन्म केवल पापके निमित्त "लक्ष्मी सरस्वती धाबी विवर्गसम्पदिभूतिशोभासु । हुआ है। इससे हम नितान्त पापी बने हैं। हमारी उपकरणवेशरचनाविधासु श्रीरिति प्रथिता ॥" (इति व्याडि) आप रक्षा करें और हमारे सकल पाप हरें। आज 'श्रीशब्दसे लक्ष्मी, सरस्वती, धात्री, त्रिवर्ग हमारा जन्म सफल है, जीवन भी धन्य हुआ है। (धर्म, अर्थ और काम) सम्पत् (धन), विभूति, इससे आपके पादपद्मके पास हमारा मस्तक भ्रमरको शोभा उपकरण और वेशरचनाविधानका मतलब भांति घूमते फिरता है।' यही दोनो मन्त्र पढ़ निकलता है। अनन्तको नमस्कार कर पीछे अनन्तव्रतको कथा (स्त्री० ) कर्मक्षा । . ३ अपरिमित शोभा, बेहद सुनना चाहिये। ४ असौम सम्पत्ति, बहद दौलत। अनन्ता श्रीः रौनक।