पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/३३५

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

३२८ अदिमग खरीदने जा सकते हैं। किन्तु चट्टग्रामके मगोंने धर्मभय तब फिर इनकी ही श्लाघा कितनी हो सकती है? और धर्मज्ञान-सबको परित्याग कर दिया है। इस स्त्रियां रात-दिन केवल अपने रूपको गरिमामें चर लिये उनके चरित्रको संशोधन करना आवश्यक है। रहती हैं। पर्वतके उच्च और दुरारोह स्थानमें इनका हम तीस आदमियोंके हाथ चार हाथी-दांत भेजते घर होता है। पहाड़पर चढ़नेका विशेष अभ्यास हैं। यह सब लोग इस चिट्ठीका जवाब लेते आयेंगे।' न रहनेसे ऐसे स्थानपर कोई सहजमें पहुंच नहीं सन् १७८७ ई० को २४ वीं जूनको आराकानके सकता। पुरुष प्रायः नङ्गे रहते हैं। कपड़े पहनना राजाने चट्टग्रामके सरदारको एक चिट्टो लिखो। केवल इच्छाकी बात है। कभी मन चाहा, तो क्योंकि, फिउती नामक किसी चोरने आराकानसे एक कोपौन लगा लिया ; इच्छा न होनेसे यह भाग, चट्टग्राममें आकर आश्रय लिया था। राजाने नग्नावस्थामें ही प्रसन्न रहते हैं। इन्होंने अपना उसी चोरको पकड़नेके लिये प्रार्थना की थी। जैसा स्वभाव बना लिया, वैसे ही इन्हें नङ्गे रहना ऊपरको चिट्टोमें जो कितनी ही बातें लिखी हैं, पड़ता है। किन्तु स्त्रियोंके शरीरपर एक वस्त्र उनसे उस समयका कुछ इतिहास मिला और कुछ अवश्य रहता है। वस्त्र इतना छोटा होता है, कि आचार-व्यवहार समझ पड़ा। राजाने अपने मुंह उससे गांठतक नहीं ढंकती। सन्तान उत्पन्न हो जो आत्मगौरव सुनाया है, उस बातको छोड़ देते हैं। जानेसे यह वक्षःस्थल खोल स्तनोंको निकाले रहती किन्तु छत्र-छत्रमें उन्होंने राजाओंका जो गुण गाया हैं। यह अधिक अलङ्कारप्रिय नहीं होतीं, फिर है, उसे अवश्य खौकार करेंगे, वैसी बात असभ्य भी छोटी छोटौ कौड़ी, पत्थर प्रभृति अयत्नसुलभ या अशिक्षित व्यक्तिके मुंहसे नहीं निकलती। राजा भूषणोंसे अपना अङ्ग सजाती हैं। तुङ्गथाओंके स्वयं बौद्ध थे ; फिर भी, उन्हें दूसरे धर्मपर अनास्था यावतीय गृहकर्मका भाग स्त्रियोंके हो हाथमें रहता न रही। पहले मग मनुष्यको खाते थे। फिर, यही है। तुङ्गथा एकसे अधिक विवाह नहीं करते। यह मट्टीका तेल उस समय भी रहा। इसके बाद मालूम बात नहीं कहते, कि यह असभ्य हैं, और पहाड़में होता है, कि चट्टग्रामकी पहाड़ी तुङ्गथा जातिके नङ्गे रहते हैं; किन्तु इस सुखका दाम्पत्यभाव अच्छी लोग आराकानवाले हो असभ्य मनुष्य हैं। यह लुशाई, तरह समझते हैं, कि प्रीति हृदयको कोई साधारण कुको प्रभृति जातियोंके साथ मिल गये हैं, इससे सामग्री नहीं, वह मन ही मन गाढ़ रूपसे प्राणों में आजकल इनका आदि मालूम नहीं हो सकता। फंसी होती है। यह खूब पहचानते हैं, कि पति त्रिपुराको मुरुङ्ग, कुमीया, किउमी, मुरुष, पत्नीका और पत्नी पतिकी है; एकके जीनेसे थेइङ्ग, बुङ्गी, पाडस, लुशाई या कुकी, सिन्ध या लख दोनो जीते और एकके मरनेसे दोनो मर जाते प्रभृति जातिओंके साथ तुङ्गथाओंका कितना ही हैं। ऐसे पशुओंके हृदयमें ऐसा स्वर्गीय सुख कहांसे सादृश्य विद्यमान है। कोई-कोई ऐसा भी अनुमान आता है? आनेको बहुतसी बातें हैं। इनका प्रेम करते हैं, कि कितने ही पहाड़ी पहले आदिबुद्धके सामान्य गांठसे ही नहीं बंधता। तुङ्गथा-कन्याओंका सेवक होनेसे आदि-मग कहलाते थे। अब क्रमसे यह गर्भाष्टममें विवाह नहीं करते, इन्हें कितने ही दिन दूसरी जातिमें मिलते जा रहे हैं। क्वारी रहना पड़ता है। पन्द्रह-सोलह वर्षका तुङ्गथा सुश्री नहीं होते। शरीरका रङ्ग मटमैला वध:क्रम होनेसे अङ्गमें कुछ यौवनोचित लावण्य-प्रभा रहता, जिसमें कुछ ताम्रवर्णको प्रभा चमका करतो झलक पाती है। इसी वयसमें हमारे समाजको है। शरीरका ढांचा भी अच्छा नहीं। नाक चपटी अभागिनी बालिकायें दैवात् जो कर्मकर कुलमें होती, जिसके विषयमें यही कहना पड़ता है, कि बौचमें कलङ्क लगाती, दुष्कर्म हो या सुकर्म-तुङ्गथाओंके हडडी नहीं रहती। अङ्गन्में जब रूपका नाम नहीं, उत्तरकालवाले ऐसे दाम्पत्यसुखका वही कारण