पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/३०१

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अत्रिगुण-अविसंहिता सप्तर्षि मघानक्षत्र, चार वत्सर अवस्थान करते हैं। ऐसा होनेसे सप्तर्षियोंका अवस्थान-काल कोई ५००० वत्सर पूर्व होता है। इसलिये उसी समयमें अत्रि- ऋषिका आविर्भाव काल सम्भव जान पड़ता है। सप्तर्षि देखी। अत्रिगुण (स० त्रि०) १ जो त्रिगुणसे सम्बन्ध न रखे ; सत्त्व, रजः और तमः-इन तीनो गुणोंसे अलग। (क्लो०) २ त्रिगुण-भिन्न अन्य वस्तु, तीन गुणोंको छोड़ कोई दूसरी चीज़। अत्रिचतुरह (सं० पु०) यज्ञविशेष, एक प्रकारका याग। अत्रिज (सं० पु.) अत्रिसे उत्पन्न, अत्रिके लड़के चन्द्र, दत्तात्रेय और दुर्वासा। अत्रिजात (स• पु०) अत्रेर्नेत्रात् जातः, जन-क्त, ५ तत्। चन्द्र, चांद। चन्द्र महर्षि अत्रिके चक्षुसे उत्पन्न हुए थे। अत्रिग्ज (सं० पु.) अत्रे शो नेत्रात् जायते, जन-ड । चन्द्र, चांद। अत्रिन् (सं० पु.) १ भक्षक, खानेवाला। २ भूत, साया। ३ राक्षस, आदमखोर । अत्रिनेत्रज अत्रिनेत्रप्रभव अत्रिनेत्रप्रसूत -अविहग्ज देखो। अत्रिनेत्रभू अत्रिप्रिया (सं० स्त्री०) अत्रिकी स्त्री और कर्दम मुनिको कन्या अनुसूया । अत्रिभारहाजिका (सं० स्त्री०) अत्रिभारद्वाज-वुन् ; अत्रिभारहाजवंशयोः मैथुनम्। इन्दाहुन् वरमेथुनिकयो । पा ४।३।१२५॥ अत्रि और भरद्वाज वंशजात स्त्रीपुरुषोंका मिलन, अत्रिभारद्वाजी विवाह ; अत्रि और भारद्वाज खान्दानको शादी। अत्रिसंहिता (सं० स्त्री०) अत्रिणा प्रणीता संहिता स्मृतिः। अत्रि ऋषि-प्रणीत संहिताविशेष, अत्रि ऋषिकी बनाई संहिता। इसमें प्रधान ज्ञातव्य विषय यह बताये गये हैं,-चार वर्णों को कर्मवृत्ति, राजधर्म, शोधन और स्नानविधि, शौचादि लक्षण, इष्टापूर्त्तवर्णन, यमनियमादि, प्रायश्चित्तविधि, अशौचनिर्णय, चान्द्रा- यणादि विधि, वव्रतविधि, षड्भिक्षुकनिर्णय, महा- पातकादिनिरूपण, नारौशुद्धि, आकरशुद्धि, प्राणायाम- लक्षण, दानविधि, श्राद्धीयब्राह्मण-निरूपण, श्राद्धफल इत्यादि। इस संहितामें शङ्ख, आपस्तम्ब, शातातप, यम और मनुसंहिताका उल्लेख पाया जाता है। क्या यह समस्त धर्मशास्त्र रचित होनेके बाद अत्रिसंहिता बनी थी? इसको हम ठीक तौरसे कह नहीं सकते। कारण, मन्वादिको अपेक्षा प्राचीन ग्रन्थ गृह्यसूत्रमें भी आत्रेय संहिताका नाम विद्यमान है। मनुने भो एक जगह कहा है,–'अत्रि और उतथ्यपुत्रके मतसे जो व्यक्ति शूद्रासे विवाह करता, वह अपने इस कार्य द्वारा पतित हो जाता है।' मनु ३।१। याज्ञवल्कासंहिता और अग्निपुराणमें भी अत्रि धर्मशास्त्रकर्ता बताये गये हैं,- "मनुर्विष्णुर्याज्ञवल्क्यो हारीतोऽबियमोऽङ्गिराः ।" अग्निपु० १६२।१। फिर आजकल जो अत्रिसंहिता मिलती, वह क्या उक्त मन्वादिको अपेक्षा प्राचीन है ? कभी नहीं। इसका कोई-कोई अंश उनकी अपेक्षा प्राचीन हो सकता है। प्रथमतः मनुके वचनसे अत्रिका जो मत मिलता, वह उसमें प्रकाशित नहीं, जिसे हम अत्रिसंहिता कहते हैं। द्वितीयत: इस अत्रिसंहितामें मन्वादिका मत उद्धृत हुआ है और कितनी ही अप्राचीन कथायें भी देख पड़ती हैं, "वेद विहीनाथ पठन्ति शास्त्र शास्त्रेण होनाश्च पुराणपाठाः । पुराणहीनाः कृषिणोभवन्ति अष्टास्ततो भागवता भवन्ति ॥" इस श्लोकमें पुराणों के नाम रहनेसे यही प्रमाणित होता, कि अत्रिसंहिता पुराणों के बाद बनी थी। सिवा इसके इस संहितामें 'म्लेच्छोंके' नाम भौ खूब लिखे हैं। इस संहिताके कितने ही स्थलोंमें आया है,- "भगवानविरब्रवीत्” अर्थात् भगवान् अत्रिने कहा था। यदि महर्षि अत्रि इसके प्रणेता होते, तो कभी ऐसा न