पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/२९९

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२६२ अवि ६ वेला, विष्णु, महेश्वरादि देवता उन्हें देखने पहुंचे थे। भगवान् अनि उनका स्तव करने लगे। अत्रिकी आराधनासे संतुष्ट हो, भगवान्त्रय मधुर- वाक्यमें उनसे बोले, हे ब्राह्मण ! यद्यपि तुमने एक- मात्र परमेश्वरको ही भावना की थी, किन्तु हम तीनो जन एक हो ईश्वर हैं, इसीलिये तुह्मारा साधु सङ्कल्प पूर्ण करनेको आ पहुंचे हैं। हे साधु ! हम तौनोके अंशसे तुह्मार पुत्रत्रय उत्पन्न होंगे ; उन्हीं तीनो पुत्रों द्वारा तुह्मारी कीर्ति त्रिभुवनमें विख्यात होगी। उन भगवानोंके वर द्वारा ब्रह्मार्क अंशसे चन्द्र, विष्णु के अंशसे दत्तात्रेय और महादेवके अंशसे दुर्वासा मुनि उत्पन्न हुए।" भागवत क०, ७ अ० । हरिवंशमें सोमदेवकी उत्पत्ति इसतरह बताई गई है, "महर्षि अत्रिने घोरतर तपस्याको प्रारम्भ किया। ऊर्द्धरेता और निमेषशून्य हो अवस्थान करनेके कारण उनके शरीरसे तेज विनिर्गत हुआ। यह तेज उनके सर्व शरीरको रञ्जित कर ऊपर चढ़ गया। उनके नेत्रसे जो वारिधारा निर्गत हुई थी, उससे दशों दिशाएं उद्भासित होने लगी। उस समय दशों दिशाओंकी अधिष्ठात्री देवियोंने समवेत हो उस तेजको गर्भमें धारण कर लिया। किन्तु कोई उसको सह न सकी। इसके बाद वही तेजोमय और सर्वलोक-प्रीतिकर शीतांश, सहसा दश दिग्दवियोंके साथ धरातलमें निपतित हुए। पतनकालमें जगत् आलोकमय हो गया था। फिर लोकपितामह ब्रह्माने चन्द्रको भूतलमें देख जगत्को मङ्गलकामनासे रथके ऊपर आरोपित किया।" इसीतरह अत्रिसे चन्द्र उत्पन्न हुए थे। चन्द्रने राजसूय यज्ञ किया, जिसमें अत्रि होता बनाये गये।” हरिवंश २५ अ० ; मत्सय २३ अ०। हरिवंशमें नीचे-लिखे दूसरे भी अत्रि-पुत्रोंके नाम मिलते हैं,- सत्यनेत्र, दीप्तिमान्, आपोमूर्ति, तरुण, निष्पकम्प, युक्त प्रभृति। ब्रह्माण्डपुराणमें इनके अत्रि नाम होनेका कारण यों लिखा गया है, "अहं तृतीय इत्यर्थस्तस्मादतिः स कीयते।" ब्रह्माण्ड उ: ४।४५॥ ब्रह्मासे जो कई प्रजापति उत्पन्न हुए, उनमें अनि तीसर थे। इसी हतीयार्थसे इनका नाम अनि पड़ा। ब्रह्माण्डपुराणके मतसे अत्रिकी यह दश पत्नियां थी,-१ भद्रा, २ शूद्रा, ३ मद्रा, ४ शलदा, ५ मलदा, ७ खला, ८ गोचपला, मानरसा और १० रत्नकूटा। भद्रासे सोमका जन्म हुआ था। इस पुराणमें दत्तात्रेय और दुर्वासाको छोड़कर अकल्मष नामक एक दूसरे पुत्रका भी नाम मिलता है। अत्रिकी कन्याका नाम अबला था। अत्रिकी कन्याका नाम ऋग्वेदके अनेक स्थलों में देख पड़ता है। ऋग्वेदको जितनी ऋचाएं नारी या तापसी-हस्तप्रसूत हैं, उनमें अत्रिकन्याको रचित ऋचाएं हो सर्वोत्कृष्ट मालूम होती हैं पुराणान्तरमें अत्रिके सम्बन्धका ऐसा विवरण पाया जाता है, “अपनेसे उत्पन्न होनेके कारण ब्रह्माने इन्हें प्रजासृष्टि और पहले-पहल वेदके रक्षणका भार सौंपा था। पहले इन्होंने पश्चिमप्रदेशको यात्रा की। वहां इनके तुहिनरश्मि नामक एक कन्या उत्पन्न हुई। इसके बाद महर्षि शङ्खनागानदीके उपकूलस्थ देशसे शङ्खपर्वतपर जा पहुंचे और श्खेतगिरिपर ब्रह्मतपमें निमग्न हुए। वहांके लोग अत्रिके आगमनकी वार्ता सुन स्त्री-पुत्र-कन्या साथ ले इनकी पूजा करने आये। अत्रिके प्रथम पुत्र शाङ्खायन देखने में अति सुन्दर और बलिष्ठ, किन्तु अतिशय अधार्मिक और उग्रस्वभाव थे। वह अभक्ष्य मांस खाते और गिरिगुहामें रहते थे उनके दूसरे माता भौ उनकी ही तरह असभ्य बन गये उस समय महर्षि अत्रि पुत्रोंके आचरण पर अत्यन्त क्रुद्द हुए और उन्हें कितनी हो भर्त्सना की। किन्तु उससे कोई फल होते न देख अत्रि आप ही आप शान्त हो गये और यह बात उन्हें अच्छीतरह समझा दी, कि वह पर्वतमें कैसे रहते, अपने लिये कैसा गांव बसाते और गवादिके लिये कैसा स्थान निर्दिष्ट करते। अन्तमें इन्होंने