पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/२७८

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२७२ अतिसार अल्प रक्त-मिश्रित और कभी पित्त-संयुक्त जल-जैसा क्रुड एवं नाइट्रिक एसिड विशेष उपयोगी हैं। सञ्चित पतला मल निकलता है। उदरामयके लिये आर्सेनिक, सलफर, चायना, फस- वैद्यक ग्रन्योंके मतसे अतिसार छः प्रकारका फोरस, फेरम प्रभृति औषधोंको व्यवस्था करे। होता है। इन छः श्रेणियोंके मध्यमें भी फिर प्रकार वैद्यक-अतिसार रोगमें होमिओपथी और वैद्यक- भेद विद्यमान है। प्रधानतः आमातिसार, रक्ताति को चिकित्सा ही अधिक प्रशस्त है। ऐलोपेथीको सार, पित्तातिसार, श्लेष्मातिसार, वातातिसार और चिकित्सा उतनी अच्छी नहीं। फिर होमिओपेथौ प्रवाहिका-यह छः प्रबल गिने गये हैं। इनके सिवा और वैद्यकको चिकित्साका फलाफल विवेचना- कृमि और शोकादि द्वारा आगन्तुक अतिसार भौ पूर्वक देखनेसे वैद्यक चिकित्साको अपेक्षाकृत श्रेष्ठ उत्पन्न हो जाता है। हमारे वैद्यकशास्त्र में अतिसार कहना पड़ता है। किन्तु चिकित्साके लिये सवैद्य रोगका जो लक्षण, निदान, उत्पत्ति-कारण, भाविफल और प्रक्कत औषध होना चाहिये। कठिन अतिसार- और औषधादि सम्बन्धीय विषय लिखा गया, वह को चिकित्सा-करने के लिये प्रथम आम और पक्कका सकल प्रकारको चिकित्सासे श्रेष्ठ है। लक्षण स्थिर करना आवश्यक है। आम और पक्कंका अतिसार रोगके यह असाध्य लक्षण हैं,-शरीर- लक्षण निश्चित न कर औषध देनेसे अनिष्ट हो का वर्ण सौसक-धातु जैसा काला पड़ जाना ; मलका सकता है। क्योंकि आमातिसारमें लङ्घन कराना वर्ण कभी पक्के जामुनके रस-जैसा, कभी रक्त और आम एवं पक्कातिसारमें धारक औषध देना उचित संयुक्त, कभी हरा और कभौ घी, तेल और चर्बी-जैसा इसलिये आमातिसारमें धारक औषध देने रहना ; तृष्णा, दाह, अरुचि, पार्श्वशूल, मलद्वारमें और पक्कातिसारमें लङ्घन करानेसे पीड़ा बढ़ क्षत, मूर्छा, प्रलाप, अज्ञानावस्थामें मलत्याग, क्षीण सकती है। और द्रुत नाड़ी, शीतल हस्तपद, शोथ, अग्निमान्द्य इन दोनो प्रकारके अतिसारोंका लक्षण स्थिर और मांसहीनता। अग्निमान्द्य और देहको मांस करना नितान्त सहज है। वैद्यलोग कहते हैं,- हीनता इतने दुरूह लक्षण हैं, कि अन्यान्य उपसर्ग आमातिसारको विष्ठा जलमें डालनेसे डूब जाती; फिर न होते भी यह दोनो सङ्केत मिलते ही, रोगका ठीक पक्कातिसारका पुरीष जलपर तैरज रहता है। किन्तु फलाफल मालूम किया जा सकता है। इस बातको यह नियम सकल स्थानमें काम नहीं आता। वैद्य, डाकर, हकीम सभी स्पष्ट स्वीकार करते हैं। पक्कातिसारका पुरोष भी अधिक तरल, अत्यन्त संघात हमारे चिकित्सा-शास्त्र में लिखा है,- एवं शीतल और कफदूषित होनेसे जलमें डूब सकता "अतिसारी राजरोगौ ग्रहणौरीगवानपि । है। कफातिसारमें श्ले माके गुरुत्वसे विष्ठा डूबती है। मांसाग्निबलहीनी यो दुल में तस्य जीवनम् ॥" आमातिसारमें पेटके भीतर गड़-गड़ शब्द होता, होमिओपेथी-कुपथ्यको भोजन करनेके एक-एक बार अल्प-अल्प मल निकलता और विष्ठासे उदरामय होनेसे पलसेटिला, एण्टिमनी क्रुड, इपिकाक अत्यन्त दुर्गन्ध आने लगता है। और कुचलेका अर्क उत्तम औषध है। अपरिष्कृत आमातिसारमें प्रथम धारक औषध न दे। जल पीने किंवा अस्वास्थ्यकर स्थानमें रहनेसे जो रोगी सबल और उदर मलसे परिपूर्ण होनेपर लङ्घन उदरामय होता, उसपर आर्सेनिकको प्रयोग करना कराये और आध तोला हरौतकौ-हरड़ तथा पाव चाहिये। ग्रीष्मकालवाले रौद्रके कारणसे अतिसार तोला छोटी पीपल, दोनोंको पौसके गर्म जलके साथ होनेपर कपूर, एकोनाइट, डलकामारा, चायना, पिलाये। एतद्वारा बद्ध मल और आम मल निकल- फसफोरिक एसिड प्रभृति औषधोंसे उपकार होता है। जाता है इसके बाद धान्यपञ्चक अथवा धान्य- वृद्धवयसके उदरामयमें फसफोरिक एसिड, एण्टिमनी चतुष्कको व्यवस्था करे। - कारण