पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/२२

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२० अक-अकड़म याजकादिभिश्च । पा २।२।४। जैसे ब्राह्मण्याजकः, अक, कुटिलगतिः। भाप० । लट् अकति। लिट देवपूजकः। [याजकादि देखी] “उद्दालकपुष्पभञ्जिका" आक । लुङ् आकोत् । यह धातु घटादिगणके अन्त- यह क्रीड़ा विशेषको संज्ञा है। भञ्जनं भञ्जिका। गत है। घटादिगणका फल क्या और कौन-कौन धातु अक प्रत्ययान्त शब्दके स्त्री-लिङ्गमें आप पर इस गणमें पढ़े जाते हैं, वह घट धातुम देखो। रहनेपर प्रत्ययस्थित ककारके पूर्ववर्ती वर्णके अकार अक (सं० क्लो०) न कं सुखमिति नञ् तत् । दुःख । न स्थानमें ई विधान हो जाता है। परन्तु सुपके उपरान्त कं सुखं यस्मात् बहुव्रोहि। पाप । आप विहित होने पर नहीं होता।* प्रत्ययस्थात् कात् अकच (१त्रि०) अक-चाय-ड। केशशून्य, खल्व-ट्, टाक- पूर्वस्थात इदाप्यसूपः । पा ७।३।४४। यथा कारक पड़ा। २केतुग्रह । नास्ति कचो देहम्य ध्वजो यस्य राहोः शब्द अक प्रत्यय द्वारा निष्पन्न हुआ है। यहाँ, कारक शरीरांशहतोः। केतुग्रह राहुका शरीर, इसके मस्तक आ (आप) इस स्त्री-प्रत्ययका प्रयोग करनेसे कारका नहीं रहता, इसलिये यह अकच कहलाता है। हुआ। इसके अनन्तर, ककारके पूर्ववर्ती रकारका अकच्छ (सं० वि०) १ नग्न । २ नगा। ३ व्यभिचारी। अकार इकार हुआ। अतएव, कारकके स्त्रीलिङ्गका अकड़ (हि. स्त्री० ) ठ। तनाव । मरोड़। (पु.) खरूप कारिका हुआ। ऊपर अकारके स्थान में इ अकड़बाज़। होगा, इस कथनका यह तात्पर्य है, कि अकारके अकड़-तड़क (हि० पु०) गठन । तेजी। ताव । घमण्ड । आगे दूसरा शब्द रहनेसे न होगा। जैसे, नौक-के अकड़ना (हि० क्रि० ) सूखकर मिकुड़ना और कड़ा हो स्त्रीलिङ्ग में नौका हुआ; परन्तु ककारके पूर्वस्थित जाना । खरा होना। एंठना । ठिठग्ना । स्तब्ध होना। औकारके स्थानमें इकार न हुआ। फिर, सूपके पश्चात् सुन्न हो जाना। तनना । शखी करना । घमंड करना। आप विहित होनेपर भी नहीं हो सकता। इस ढिठाई करना। हठ करना। जिद करना। अड़ना। कथन का यह तात्पर्य है, कि बहु परिव्राजिका नगरौ। चिटकना। उलझ पड़ना। इस स्थानपर सबके पहिले समास करनेके समय सुप- अकड़वाई ( स्त्री० ) ऐठन । शरीरको नमोंका पीड़ाके का लुक हो गया है उसके उपरान्त स्त्रीप्रत्यय। जैसे, साथ एकाएक खिंचना। • बहवः परिव्राजकाः विद्यन्ते यस्यां नगयां सा बहुपरि- अकड़बाज-एंठदार। शेरवीवाज़ । अभिमानी। नोक ब्राजकानगरी।। न यासयोः। पा ७।३।४५। पाणिनिक झोंकवाला। इस सूत्रके ऊपर कात्यायनने कितनही निषेध-विधिक अकड़बाजी (स्त्री० ) ऐंठ। शरवी । अभिमान । वार्त्तिक किये हैं। जैसे-पाचकादीनांछन्द स्युपसंख्यानम्। अकड़म-एक चक्र। पहिले अकड़म रहनक कारण वेद विषयमें पाचकादि शब्दके परस्त्री-लिङ्ग आप होने इस चक्रका एमा नाम पड़ा है। दीक्षाके समय गुरु पर उसका पूर्ववर्ती इकार नहीं होता। पाचका इसी चक्र द्वारा शिष्यको मिडि, कार्यकी सफलता हिरण्यवर्ण शुचि । अन्यत्र पाचिका * आशिषि आदिकी गणना करते हैं। इसका पूरा-पूरा हाल चोपसंख्यानम् । जीवताट् जीवक, जीवका, यहाँ आशी रुद्रयामलमें लिखा हुआ है। इस चक्रम यह मालूम र्बादप्रयोग रहनेके कारण इकार न हुआ।। उत्तर हो जाता है, कि इष्ट-मन्त्र शिष्यको अच्छा फल देगा पदलोपे चोपसंख्यानम्। देवदत्तिका लोपे देवका ।। या नहीं। यद्यपि रुद्रयामलर्क मतम यह गोपाल- तारका ज्योतिष्य पसंख्यानम्। तारका शब्दमें दृष्टि मन्त्र में है, परन्तु तन्त्रमें भी इसकी व्यवस्था पाई जाती और नक्षत्रके अर्थमें इकार नहीं होती। तारका । है। गणना करनेका क्रम यों है:-मान लीजिये कि अन्यत्र तारिका दासी।। वर्तका शकुनौ प्राच्यमुप शिष्यका नाम अमरनाथ है और वीजमन्त्र ह्रीं है। संख्यानम् । पक्षी अर्थ में प्राच्य पण्डितोंके मतके अनुसार अब अमरनाथ नामके आदि अक्षर अकारके प्रकोष्ठसे वर्तका ही होगा। अत्यत्र वर्तिका । बांई ओर होकर गिनना प्रारम्भ कौजिये। पहिला --