पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/१९५

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अज बड़े-बड़े बकरों और बकरियोंके सींगमें एक प्रकार कीट उत्पन्न होता है। बकरेके अन्त्र और पित्तकोषमें एक प्रकारको शिला भी उत्पन्न होती है। यह शिला अत्यन्त विषघ्न है, इसीसे पूर्वकालके लोग इसे औषधार्थ नाना रोगोंमें व्यवहार करते थे। इस देशमें बकरेके चमड़ेसे ढोलक, तबला, बायां प्रभृति वाद्ययन्त्र मढ़े जाते हैं, इसके सिवा इससे कोई दूसरा बड़ा काम नहीं निकलता। इतर लोग जल्द उतारे गये बकरेके चमड़ेको जलाकर खा डालते हैं। साधारण बकरेके बालका चित्रकार कलम बनाते हैं। बकरे उच्चस्थानपर सोना पसन्द करते हैं। इसीसे वह प्रायः भग्न प्राचीरपर सोते हैं। कितने ही लोग इस बातको कुलक्षण समझते हैं। वह कहते हैं, कि बकरा किसीको लक्ष्मीश्री देख नहीं सकता। इसको यही प्रार्थना है, कि गृहस्थका घर टूट जाये और यह उसके ऊपर सुखसे सोये। -- बकरको लेंडी सड़ाकर रखनेसे बाग और शस्य- क्षेत्रके लिये बढ़िया खाद होती है। यह गोबरको बनिस्बत अनेकांशमें उत्कृष्ट है; किन्तु कृषकोंके मतसे भेंड़को लेंडीमें और भी अधिक तेज रहता है। वैद्य किसी-किसी रोगके मुष्टियोगमें बकरेको लेंडी देते हैं। फोड़ा शीघ्र न पकनेसे बकरको लेंडी गर्म- कर वेदना-स्थलपर प्रलेप देना पड़ता है। पार्श्वशूल- में बकरको लेंडी, हींग, अदरक, आतप चावल और असगंधका बकला एकमें पीसकर गर्म करे। थोड़ा उबाल आ जानेसे यह औषध बेदना-स्थलपर लगाते ही पौड़ा घट जाती है। पक्षाघात रोगमें बकरको लेंडी पानी में पकाकर इससे अवशाङ्ग मलनेपर थोड़ा उपकार होता है। कृत्रिम स्वर्ण प्रस्तुत करनेके लिये घोड़े और बकरेकी विष्ठासे पारा मारना पड़ता है। स्वण देखो। धोबी या रजक बकरे और भेड़को लेंडौसे कपड़े धोते हैं। इससे कितना ही मैल छूट जाता है। एकांतरा या ऐकाहिक ज्वर आनेसे अन्न लोग शनिवार किंवा मङ्गलवारको शेष- रात्रिमें बकरकी रस्मी चुरा तिराहेमें इसपर मूत्रत्याग करते हैं। किसौके मतसे, बकरका खूटा उखाड़ इसके गर्तमें मूत्रत्याग करनेसे भौतिक ज्वरका उप- शम हो जाता है। यौवनकाल उपस्थित होने पर बकरेके शरोरसे बड़े ज़ोरमें बदबू निकलने लगती है। कितनों हीका अनुमान है, कि बकरका कोष ही इस बदबूका प्रधान स्थान है। वैद्योंके मतसे इस तरहके बदबूदार बकरका सदा पास रखना कासरोगको शान्त करता है। खस्मौ या बकरौके शरीरमें यह बदबू नहीं होती अन्यान्य सकल प्राणियोंके मध्य में बकरा ही अधिक नपुंसक होता है। इसका प्रधान कारण अयोग्य मिलन है। जहां यह दोष नहीं, वहां अधिक नपुंसक बकरे नहीं उत्पन्न होते। नपुंसक बकरका मांस औषधमें काम आता है। हंसकी तरह बकरा भी सहजमें ही अज्ञान किया जाता है। पीठके बल लिटाकर हंसकी आंखके पास एक लकड़ी घुमानेसे सांस एकबारगी ही रुक जातो और वह मुग्ध हो जाता है, फिर उठकर नहीं भागता। एक करवट लिटा और आंखें बन्द कर देने पर फिर बकरसे भी उठा नहीं जाता। पूर्वकालसे भारतवर्षमें सभी लोग विशेष आदर- पूर्वक अजमांसको भोजन करते आये हैं। पुरोहित- को अजपञ्चौदन देनेसे यजमान स्वर्गलाभ करते हैं। आजकल जैसे गृहमें बन्धु-बान्धव आनेसे हम तरह तरहको तरकारौ मंगाते और पूरी-कचौड़ी बनवाते हैं, वैसे ही पूर्व कालके ऋषि-तपस्वी और ब्राह्मण किसौके घर पहुंचनेपर गृहस्थ तत्क्षणात् एक बकरा काट उन अभ्यागत व्यक्तियोंको भोजन कराते थे। उत्तर-चरितके चतुर्थाश्रमें लिखा है- “समांसं मधुपर्क इत्याम्नायं बहुमन्यमाना: श्रीवियायाभ्यागताय वत्सतरौं महोक्ष' वा महाजं वा निर्वपन्ति सहमधिन इति हि धर्मसूत्रकाराः समामनन्ति ।" यह वेदविधि सम्मत है, कि स्नातकोंको अभ्यर्थना- के लिये समांस मसुपर्क देना कर्तव्य है। ग्टहस्थ व्यक्ति बकरको मारकर अभ्यागत ब्राह्मणोंको भोजन करायें। धर्मशास्त्रकार इस विधिका आदर करते । मधुपर्क शब्दमैं इसका विशेष विवरण देखो।