पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/१२७

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अग्निष्टोम इस यन्नमें अग्नि प्रधान देवता होते भी इन्द्र और वायु प्रभृति देवताओंके उद्देशसे भी स्तव किया जाता है। सोमयागके अन्तर्भुत अग्निष्टोम, अत्यग्निष्टोम, उक्थ्य प्रभृति यज्ञ ब्राह्मणोंका ही कर्तव्य है। पूर्वकालमें जिन सकल ब्राह्मणों के पिता, पितामह और प्रपितामह इन तीन पुरुषोंके मध्यमें कोई यदि अग्निष्टोम यज्ञका अनुष्ठान करता न रहा हो, तो वह दुर्ब्राह्मणोंमें परि- गणित होता। ईस दोषको परिहार करने के लिये आश्विन-पश्खनुष्ठान, और सोमपान न करने के कारण ऐन्द्राग्र-पश्खनुष्ठान करना आवश्यक है। यह एक- रूप प्रायश्चित्त है। तीन पुरुषोंके मध्यमें किसौके इसका अनुष्ठान करनेसे उक्त प्रकारका अनुष्ठान फिर करना न होगा। ऐतरेय-ब्राह्मणभाष्यमें सायणाचार्यने लिखा है- 'ज्योतिष्ठोम यज्ञको सात संस्था हैं, उनमें अग्निष्ठोम, उक्थ्य, षोड़शी और अतिरात्र यह चार संस्था परस्पर वर्णित हुई हैं। इन चारके मध्यमें अग्निष्ठोम प्रकृति है, यानी सकल अनुष्ठानीय अग्निष्टोममें उपदिष्ट हुए हैं। अग्निष्टोमके आरम्भमें प्रथम ऋत्त्विक्को वरण करना होता, पीछे इष्टिविधान किया जाता है।' ऐतरेय-ब्राह्मण में लिखा है-'एकादश कपालमें संस्कृत और दीक्षणीय पुरोडाशको अग्नि और विष्णुके उद्देश- से निवपण करे। इसके द्वारा सकल देवताओंके उद्देश- से ही निरवशेषमें निर्वपण (पुरोडाश-प्रदान) करना होगा । दर्शपूर्णमास द्वारा दीक्षणीयेष्टि सम्पादन करे । इसके बाद सप्तदश सामिधेनौ पढ़े। दीक्षणीयेष्टि और आनुसङ्गिक संस्कार विधानके बाद जिस यजमानने इससे पहिले सोमयाग नहीं किया, उसके लिये “त्वमग्ने सप्रथा असि" (ऋक् ५।१३।४) और 'सोम यास्ते मयोभुवः” (१९. इत्यादि मन्त्र आज्यभागइयमें पुरोऽनुवाक्या रूपसे पाठ करना पड़ेगा। जिस यजमानने पहले याग किया है, उसके किये “अग्निः प्रने न मन्मना" (ऋक् ८४४।१२) और “सोम गौर्भिष्ट्रा वयम्” (१।९।११) इत्यादि दोमन्त्र पढ़े। आज्य भागके दानकर्माङ्गमें 'अग्निमुखं प्रथमं देवतानां' एवं 'अग्निश्च विष्णो तप उत्तम महः' इत्यादि (आश्व श्रौत०४।२) दो मन्त्र अग्नि और विष्णुके उद्देशसे हविप्रदानके लिये अनुवाक्या और ३१ याज्या रूपसे पढ़ना पड़ेगा। पीछे विविध काम्य और नित्य संयाज्या और सत्यु क्तिको पाठ कर प्रायणीयेष्टि करनी होगी। इसके बाद प्रयाजाहुति, देवताप्रशंसा, प्रायणीयष्टीका याज्यानुवाक्या और उसकी प्रशंसा, संजाज्याविधान, प्रयाज और अनुयाज विधानके बाद उदयनीय इष्टि समाप्तकर यथाक्रमसे सोमप्रवहन, अग्निमन्थन, आतिथ्येष्टि, प्रवर्गकर्म, उपसदिष्टि, सोमाय्यायन, निङ्गव और व्रतोपायन यथा- मन्त्र सम्पन्न कर सोमक्रय, अग्निप्रणयन, हविर्धान प्रव- तन, अग्नीषोमप्रणयन, यूपसंस्कार, अध्रिगुप्रैष, पुरो- डाश और वपाहोम, पखाङ्गहोम, पशुयाग, वपास्तोक- होम, प्रातरनुवाक, अपोनप्तिय सूक्तपाठ, उपांशुग्रह और अन्तर्यामग्रह, वहिष्पवमान स्तोत्र, सवनकर्म, विदेवत्यग्रहहोम, ऋतुग्रहहोम तुष्णींशंस, आज्यशस्त्र, प्रउगशस्त्र, तदन्तर्गत वषट्कार, प्रेषकर्म, निवित्- स्थापना, आहाव, प्रतिगर, मरुत्त्वतीय शस्त्र, निष्क- वल्यशस्त्र, वैश्यदेवशस्त्र और अन्तमें आग्निमारुत शस्त्र करे। ऐतरेय ब्राह्मणको प्रथम पञ्चिकासे दृतीय पञ्चिकाके चतुर्थ अध्याय पर्यन्त अग्निष्टोम यज्ञका विवरण विवृत हुआ है। इसके सम्बन्धमें उपाख्यान है, कि अग्निष्टोम सकल सोमयज्ञोंको प्रकृति हैं यथा-'पूराकालमें देवताओंने असुरादि सहित युद्धका उपक्रम किया था ; किन्तु अग्निने उनके अनुगमनको इच्छा न को। देवताओंने उनसे कहा, 'आप चलिये, आप भी हमारी मध्यमें ही एकजन हैं।' उन्होंने कहा, मेरा स्तव न करनेसे मैं आपका अनुगमन न करूंगा, शौध हो मेरा स्तव कौजिये।' बहुत अच्छा कह, और उठकर उनके पास पहुंच देवताओंने उनका स्तव किया। अग्निने भी स्तवके बाद उनका अनुगमन किया। वह अग्नि- श्रेणित्रययुक्त और अनौकत्रययुक्त हो विजयके लिये असुरोंके निकट युद्धमें उपस्थित हुए। वह छन्दोगणको तीन श्रेणियोंमें परिणत-करनेके कारण णित्रययुक्त, और सवनसमूहको अनौकमें परिणत करनेकै कारण अनौकत्रययुक्त हुए थे। उस समय उन्होंने असुरोंको सम्पूर्ण रूपसे पराभूत किया