पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष भाग 1.djvu/१२६

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1 १२० अग्निशिखा-अग्निष्टोम भी जला सकती है। किन्तु उसमें रोशनी बहुत कम जिसके दूसरे मुंहसे अदग्ध बाष्प बाहर निकल होतो है, दिनके समय देख नहीं पड़ती। अग्निशिखाका रही है। रूप इस तरह है-१, अन्तर्देश । जिसके भीतर अङ्गार अग्निशुद्धि (सं० स्त्री०) १ अग्निसे शुद्ध करनेको रौति । बाष्पादि दाद्य पदार्थ रहता, किन्तु प्रज्वलित भावसे आगसे पाक करनेको चाल । २ अग्निपरीक्षा, आगसे नहीं। किसी शीशेके नलका एक छोर इसके भीतर भले-बुरेकी पहचान। डालनेसे दूसरे छोरसे भाफ निकला करती है। यह अग्निशुश्रूषा (सं० स्त्री०) ६-तत्। असन्-अ-शुश्रूषा । भाफ आग लगाते ही जल उठतो, जिससे अच्छी तरह सन्चङोः । पा हा१६॥ यथाविधि होमकार्य । समझा जा सकता है, कि इस स्थानको भाफ नहीं अग्निशेखर (सं० पु०) अग्निरिव शेखरमग्रं यस्य । जलती। इसी अन्तर्देशमै अक्षिजन् अच्छी तरह घुस १ कुखुमवृक्ष, कुसुमवृक्ष । केसर। २ जाङ्गली वृक्ष । नहीं सकती, इसीलिये इस स्थानमें अङ्गारकणा प्रभृति (त्रि०) अग्नितुल्य अग्रविशिष्ट, जिसका अग्रभाग आग दाह्य पदार्थ अग्रज्वलित भावसे रहते हैं। (२) मध्यदेश । जैसा चमकीला हो। इस जगह वायुको अक्षिजेन् अधिक परिमाणसे जा अग्निशेष (स• पु०) तैत्तिरीय-संहिताके अग्न्याध्यायका सकती, जिससे वह अङ्गारके साथ मिल जला करतो भाग। है ; किन्तु सम्पूर्ण भावसे नहीं। अनेक अङ्गारकणा अग्निश्री (सं० स्त्री०) १ अग्निका प्रतिभा, आगको कठिन अवस्थामें रह जात, उत्तापमें वही शुभ्र उज्ज्वल रोशनी। २ अग्निका अवलोकन । रूप धारण कर रोशनी फैलाते हैं। शिखाका यही भाग अग्निष्ट त् (सं० पु०) अग्नि-स्तु-क्विप् । अग्निः स्तूयते ज्योतिर्मय है, दूसरी भागमें रोशनी नहीं होती। यत्र । अग्न: स्तुतस्तोमसोमाः । पा ८।३।८२ । इति षत्वं। एकाह- ३ बहिर्भाग । इस स्थानमें अम्बजान्का अभाव नहों, साध्य यन-विशष। वह यज्ञ जो एक ही दिनमें इसीसे वह दाह्य बाष्पके साथ मिलकर उग्रतेजमें जल समाप्त हो जाये। जातो है । अङ्गारकणा जैसे इस जगह आ पड़ते, वैसे अग्निष्टुभ् (सं० पु०) अग्नि-स्तुभ-क्विप् । १ यज्ञ-विशेष, हौ जलकर भाफ भी बन जाते हैं। उन्हें ज्योतिर्मय एक प्रकारका यज्ञ। २ नकुलाके गर्भसे उत्पन्न हुए होने का अवकाश नहीं मिलता, इसी कारण शिखाके प्रजापति वैराजके पुत्र। बहिर्भागसे रोशनी नहीं निकलती। अतएव यही प्रति- अग्निष्टोम (सं० पु०) अग्नीनां स्तोमः । अग्ने : स्तुतस्तोमसोमाः' पन्न होता है, कि अग्निशिखाका समुदय अंश यदि इति षत्वं । यज्ञ विशेष। “स्वर्गकामीयजेत्" युतिः । स्वर्ग एकही कालमें जला करे, तो रोशनी कभी न निकले। कामनाके लिये यज्ञ अनुष्ठित होता है। प्रथमतः बालीक शब्दमै अपरापर वृत्तान्त देखी। यज्ञ दो भागमें विभक्त हैं-सोमयज्ञ और हवियंन । यह दीपशिखाका एक चित्र है। इसका मध्यस्थल जिस यज्ञमें दधि, दुग्ध, घृत और पुरोडाश प्रभृति पि- कृष्णवर्ण है, जहां भाफ आकर ष्टक आहुति देकर अनुष्ठान किया जाता, वह हविर्यज्ञ, इकट्ठा होती है। इस भाफमें एवं सोमरसको आहुतिसे जो यज्ञ किया जाता उसका गर्मी नहीं और न यह जलती नाम सोमयज है। यह अग्निष्टोम सोमयागकै अन्त- ही है। शीशेवाले नलके भीतर भुक्त है। इस अग्निष्टोम यज्ञमें सोमरसको आहुति डाल कर कोई कागज दीप- देकर पीछे सोमरसको पान किया जाता है। यह यज्ञ शिखाके ठीक मध्यस्थल में पहुं- वसन्तकालमें करना पड़ता है। कारण, वसन्तमें प्रचुर चानेसे जलता नहीं। इस जगह सोम मिलता हैं। 'वसन्ते अग्निष्टोमः' इति-कात्यायनः । इस इस काले रङ्गको भाफके बीच यज्ञका प्रधान देवता अग्नि है। इस यज्ञमें अग्निकास्तव टेढ़े शीशेके नलका एक मुंह डाला गया है, किये जानेके कारण इसका नाम अग्निष्टोम 1 N पड़ा