पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष पंचदश भाग.djvu/६८५

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भगन्दर ६७६ वर्ती स्थानको खा कर विदीर्ण कर देती हैं। उन खाये उसकी चिकित्सा न करानेसे क्रमशः वह बढ़ता जाता है हुए छेद्रोंसे क्रमशः वात, मूत्र, पूरीप और रेतः निःसृत और उसमें कृमि उत्पन्न हो जाती है। धे कृमि मांस- होते हैं। इसे उन्मागी भगन्दर कहते हैं। को विदार कर छिद्रविशिष्ट अनेक व्रण उत्पन्न कर देतो . सभी प्रकारके भगन्दर अत्यन्त यन्त्रणादायक और है जिससे उन्मागी भगन्दर हो जाता है। कष्टसाध्य होते हैं। जिस भगन्दरमेंसे अधोवायु, मल, भगन्दररोग मात्र ही अति भयङ्कर अतिकष्टदायक है। मूत्र और कृमि निकलना शुरू हो गया हो, उसमें फिर उसमें सन्निपातक और क्षतज भगन्दर सर्वप्रकारसे रोगीके बचनेकी कोई आशा नहीं। जो भगन्दर पहले असाध्य है। जिस भगंदग्में मूत्र, पुरोष, शुक्र और कृमि स्तनकी भांति उन्नत हो कर उत्पन्न होता है और निकलने लगे, उसे भो असाध्य समझना चाहिए । वादमें विदीर्ण होने पर नदीके आवर्तकी भांति आकार इसकी चिकित्सा गुहादेशमे पाड़का होनेसे बड़े धारण करता है उसे असाध्य समझना चाहिए। यसके साथ उसकी चिकित्सा करानी चाहिए। वह ___ वायु निर्गमन स्थानमें जो कुछ कुछ उपद्रव और पीडका जिसमे पकने न पाये, ऐसा प्रयत्न करना ठीक शोफ विशिष्ट रोग उत्पन्न हो कर शीघ्र ही उपमित हो है नथा जिसमें अधिकतासे रक्तस्राव न हो, वह भी जाते हैं, उनका नाम 'पोडका' है। पीड़का भगन्दरसे करना आवश्यक है। भिन्न है। जिस पीड़कासे भगन्दर हो जाता है, वह वटपत्र, इएक, मोंठ, गुलश्च और पुनर्णया पीस कर इससे विपरोत है । जिस पीड़कासे भगन्दर होता है, वह उसकी पीड़कावस्थामें गुहा पर लेप करनेसे भगंदरोग पायुके दो अंगुली-प्रमाण स्थानमें उत्पन्न होता है। यह नए होता है। पीडकाकी अपवावस्थामें प्रथमतः अति- गूढमूल, वेदना और ज्वरविशिष्ट हुआ करता है । किसी तर्पण, पोछे क्रमशः विरेचन पर्यन्त एकादश क्रियाएं करनी सवारीमें बैठ कर जाते समय वा मलत्याग करते समय चाहिए। विरेचनादि कियाओंका विवरण 'ग्रगा' शब्दमें देखो । पायुदेशमें कण्डु, वेदना, दाह, शोफ और कटिम वेदना उस पोडकाके भिन्न वा फट जाने पर एषणो द्वारा होना भगन्दरके पूर्वलक्षण हैं। सभी प्रकार के भगन्दरमें शोषका अन्वेषण, छेदन, क्षारप्रयोग और अग्निकर्म आदि घोर दुःख होता है। उनमें भी त्रिदोष और क्षत जन्य क्रियाएं करके दोषानुसार विवेचना पूर्वक घणकी भांति भगन्दर असाध्य है। ( सुश्रु त निदानस्था० ४ अ०) चिकित्सा करनी चाहिए। तिल, निम्ब और यष्टिमधु, भावप्रकाशमें इस रोगके उत्पत्तिका कारण और इनको समानभागमें दूधके साथ पोस कर शीतल प्रलेप चिकित्साप्रकरण तथा पूर्णरूप और लक्षण इस प्रकार देनेसे सरक्त वेदना-सयुक्त भगन्दर नष्ट होता है । जात- लिखा है-भगन्दर होनेसे पहले कटीफलकमें सूचीविद्ध- : पत्र, वटपत्र, गुलञ्च, सोंठ और सैन्धव इनको तक्रके वत् वेदनादि तथा गुह्यमें दाह, कण्डु और वेदनादि । साथ पोस कर प्रलेप करनेसे भगदर शीघ्र ही प्रशमित उपस्थित हुआ करती है। गुह्यके एक पाव में दो होता है। निसोथ, तिल, हाथीसूड़ा, और मजीठ इनको अंगुलि परिमिति स्थान पर वेदानान्वित पीड़का हो कर पीस कर घी, मधु और मैन्धवके साथ प्रलेप करनेसे फट जाने पर उसे भगन्दर कहते हैं। यह भगन्दर पांच भगन्दररोग जाता रहता है। स्खदिरकाष्ठका क्वाथ, प्रकारका होता है--वातक, पैत्तिक, श्लैष्मिक, सान्नि- त्रिफला, गुग्गुल वा विडंगका क्वाथ पीनेसे भगंदर अच्छा पातिक और शल्यज । वातजन्यको शतपोनक भगन्दर, हो जाता है। न्यग्रोधादिगणका काथ और उसके पित्तजन्यको उष्ट्रप्रोष भगन्दर, श्लेष्मजको परिस्रावी भग कल्कके साथ तैल वा घृत पाक करके सेवन करनेसे भो न्दर, सन्निपातजको शम्बुक भगन्दर और शल्यजको यह रोग प्रशमित होता है। तिल, लता, फिटकरी, कुड़ उन्मगी भगन्दर कहते हैं। इनके लक्षण सुश्रुतोक्त भग- विषलागला, हापरमाली, सोयाँ, निसोथ और दन्ती इन- न्दरोंके सद्दश हैं। गुह्यद्वारमें कण्टकादि द्वारा वा नख का प्रलेप भी फायदेमन्द है। इस रोगके शोधन और द्वारा क्षत हो कर जो शोष उत्पन्न होता है, लापरवाहीस' रोपणार्थ तिलं, हरितकी, लोध, निम्बपन, हरिद्रा, दारु