पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष पंचदश भाग.djvu/६३४

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ब्राह्मणभोजन-प्राह्मलक्षण

कर्त्तव्य है। मनुमें ब्राह्मणभोजनका विषय इस प्रकार हैं। श्राद्ध में ऐसे ब्राह्मणका अभाव हो तो कल्पविधानसे लिखा है,- कार्य सम्पन्न करे। पञ्चयक्षके अन्तर्गत पितृयशमें पितरोंको संतुष्ट करनेके ___अनुकल्पविध-मातामह, मातुल, भागिनेय, श्वशुर, लिये एक भी ब्राह्मणभोजन कराना उचित है । वलिवैश्व गुरु, दौहित्र, जामाता, मातृष्वस, पितृण्वसू, पुत्रादि, में ब्राह्मणभोजनको आवश्यकता नहीं होती। बधु, पुरोहित और शिष्य इन्हें भोजन कराना चाहिये। दैवकार्य में दो और पितृकार्यमें तीन ब्राह्मण अथवा केवल श्राद्धकर्म में ही ऐसे ब्राह्मणका विचार किया जा देवपक्षमें एक और पित्रादि पक्षमें भी एक ब्राह्मणभोजन सकता है। अन्य दैवक्रियामें उनका गुणागुण नहीं देखा कराना होता है। समर्थ होने पर भी इससे अधिक जाता। किंतु निम्नोक्त निन्दित ब्राह्मणको, चाहे दैव ब्राह्मणभोजन करानेका नियम नहीं है, क्योंकि अधिक कार्य हो या पैना किसी भी कार्यमें भोजन नहीं कराना ब्राह्मण होनेसे उनकी सेवा, देश, काल, शुद्धाशुद्ध और चाहिये। जो सब ब्राह्मण चोरी करते हैं, जो क्लीव, पानापानके विचार आदि सम्बन्धमें किसी नियमका नास्तिक, वेदाध्ययनशून्य, ब्रह्मचारी चर्मरोगप्रस्त, द्युत सम्यकपसे प्रतिपालन नहीं होता। इसी कारण बहुत क्राडापरायण, बहुयागी, चिकित्साव्यवसायी, प्रतिमा- ब्राह्मणों को खिलाना निषिद्ध है। ब्राह्मण दैव और पितृ- : पारचालक, देवल, वाणिज्योपजीवी, कुनखी, श्यावदन्त कार्य में एक पफ वेदविद् ब्राह्मणको खिलाना चाहिये। अर्थात् कृष्णवर्ण दन्तविशिष्ट, गुरुके प्रतिकूलाचरणकारी, घेदसे मनभिज्ञ यदि सैकड़ों ब्राह्मणको खिलाया भी क्यों श्रीत तथा स्मार्त अग्निपरित्यागकारी कुशीदजीवी, पशु- न जाय, तो भी कोई फल नहीं। वेदपारग ब्राह्मणके | पालक इत्यादि तथा और भी जो निन्दित ब्राह्मण हैं सम्बन्ध विशेष अनुसन्धान करना आवश्यक है, अर्थात् उन्हें खिलानेसे ब्राह्मणभोजनका फल नहीं होता, वरं उनके पिता, पितामहादि, पूर्वपुरुषका भी फैसा आभि- पाप हो होता है। ( मनुसंहिता ३ अध्याय ) जात्यादि गुण था, उसका निरूपण करे। वशपरम्परा- आजकल उक्त गुणयुक्त ब्राह्मण नहीं मिलते, इसी शुद्ध, वेदपारग ब्राह्मण-भोजन ही प्रशस्त है। घदसे कारण कुशमय ब्राह्मण बना कर श्राद्धादि निष्पन्न किया अनभिज्ञ जहां दश लाख ब्राह्मण भोजन करते हैं, उस जाता है। श्राद्ध में यदि वददि एक भी ब्राह्मणभोजन करे, तो दश ब्राह्मणयज्ञ ( स० पु० ) ब्राह्मणमात्रकत को यज्ञः मध्यपद लाख ब्राह्मणभोजन करानेका फल होता है। अक्ष ब्राह्मण लोप कमधा। विप्रमात्रकर्त्तव्य सौत्रामणोय यक्ष । श्राद्धमें जितने प्रास भोजन करते हैं, परलोकमें उन्हें "ब्राहमणयज्ञः सौत्रामण्युद्धिकामस्य” ( कात्या० श्री० १६११) उतने ही लोहपिण्ड खाने पड़ते हैं। ब्राह्मणयष्टिका ( स० स्त्री०) ब्राह्मणस्य यष्टिरिव; ततः ब्राह्मणों के मध्य कोई आत्मज्ञानमिष्ठ, कोई तपस्या स्वार्थे संज्ञायां वा कन् अतः इत्व । वृक्षविशेष, भारंगी। परायण, कोई तपस्या और अध्ययन उभयनिष्ठ और कोई पर्याय-फञ्जिका, ब्राह्मणी, पद्मा, भागों, अङ्गारबल्ली, कर्मनिष्ठ हैं। इन चार प्रकारके ब्राह्मणोंमें आत्मज्ञाननिष्ठ बालेयशाक, पर्वर, वर्द्धक, ब्रह्मयष्टि, फजीका, षष्ठी, ब्रह्म- ब्राह्मणको हो श्राद्धमें खिलाना चाहिये। किन्तु दैव- यष्टिका, दुर्वारा, अङ्गारवल्लरी, बालेय, ब्राझिका, भृगुभवा, कर्म में उक्त चारों ही प्रकारके ब्राह्मण-भोजन प्रशस्त है। पथ्या, खरशाक, इञ्जीका । गुण---रुक्ष, कटु, तिक्त, रुचिकर, जिनके पिता मूर्ण हैं अथवा जो स्वयं वेदपारग हैं या| उष्ण, पाचन, लघु, दोपन, गुल्म, रक्त, शोथ, कास, कफ, जो स्वयं मूर्ण और पिता वेदपारग हैं इन दोनों से श्वास, पीनसरोग, ज्वर और वायुनाशक । (भावप्र०) जिनके पिता वेदपारग हैं, उन्हें भोजन करानेसे अधिक २विप्रदण्ड । फल प्राप्त होता है। वेदपारग ऋग्वेदी ब्राह्मण, समस्त ब्राह्मणयष्टी (संस्त्री०) ब्राह्मणस्य यष्टीष । भागीं। शाखाध्यायी यजुर्वेदी ब्राह्मण अथवा सामवेदी ब्राह्मण, | ब्राह्मणलक्षण (सं० क्लो० ) ब्राह्मणस्य लक्षणम् । विप्रका इन तीन घेदी ब्राह्मणोंमेंसे किसोको भोजन करा सकते । असाधारण धर्मभेद ।