पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष पंचदश भाग.djvu/६३३

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ब्रामणक-बामणभोजन वेदके ब्राह्मणभागका लक्षण स्थिर करना बहुत ही ब्राह्मणजीविका ( स० त्रि०) पौरहित्यरूप यजमयाजनादि कठिन है, कारण वेदभागकी इयत्ताका कोई अवधारण न तथा अध्यापनादिरूप उपजीविका। होनेसे ब्राह्मणभागके अन्यभागके लक्षणमें अव्याप्ति और ब्राह्मणता (सं० त्रि० ) ब्राह्मणस्य भावः तल टाप । 'अतिव्यांप्ति दोष होता है। इसलिए इसका कोई निर्दिष्ट १ ब्राह्मणका धर्म, ब्राह्मणका कत्तव्य कर्म । २ ब्राह्मण- लक्षण न करना ही श्रेय है । परन्तु इतना कहा जा रूपत्व। सकता है, कि मन्त्रभाग एक है और ब्रह्मणभागमें हेतु, ब्राह्मणवा (सं० अव्य०) ब्राह्मणाय देय नाच । ब्राह्मण- निर्वचन, निन्दा, प्रशंसा, संशय, विधि, परक्रिया, पुरा को देने लायक । कल्प और व्यवधारण-कल्पना आदि कहे गये हैं। वेद ब्राह्मणत्व ( स० क्ली० ) ब्राह्मणस्य भावः त्वल। ब्राह्मण- मन्त्र और ब्राह्मण इन दो भागोंमें विभक्त हैं। वेदका का भाव वा धर्म, ब्राह्मण पन। मन्त्रातिरिक्त भाग ही ब्राह्मणभाग है । ३ विष्णु। ब्राह्मणदारिका ( स० स्त्री० ) ब्राह्मण-कन्या। (भारत १३६१४६।८४ ) ४ शिव । ( भारत १३।१४६।८४) ब्राह्मणद्वोषिन् (म त्रि.) ब्राह्मणका हिंसाकारी, ब्राह्मणको ५ अग्निका नामान्तर, अग्निका एक नाम । (शतपथब्रा० । हिसा करनेवाला। १।४।२।२) ६ नक्षत्रभेद, एक नक्षत्र । ब्राह्मणपथ : पु० ) वेदके ब्राह्मणविशेष । ब्राह्मणक (सं० पु०) ब्राह्मण कुत्सितार्थ-कन् । १ कुत्सित । ब्राह्मणपाल ( स० पु० ) गजपुत्रभेद । ब्राह्मण, निन्दित ब्राह्मण। ब्राह्मणेन जातिमालेण कायति ब्राह्मणप्रिय ( स० वि० ) ब्राह्मणः प्रियो यस्य । १ विष्णु । कैक। २ ब्राह्मणकृत्यरहित बाह्मणजाति । सशायां ब्राह्मणस्य प्रियः । २ विप्रहित । कन्। ३ आयुधजीवि बाह्मणप्रधान देश । ब्राह्मणब्रुव ( स० पु. ) ब्राह्मणवंशोत्पन्नतया वेदोक्त- कर्माकुर्वन्नपि आत्मानं ब्राह्मणं ब्रवीतीति ब्राह्मण ब्रू-क, ब्राह्मणकल्प ( स० पु०) १ वेदके ब्राह्मण और कल्पभाग वोहुलकात् न वच्यादेशः। ब्राह्मण जातिमात्रोपजीवी, (त्रि०) २ ब्राह्मण सदृश । वेदविहित कर्मादिहीन ब्राह्मण । जो सब ब्राह्मण संस्कृत ब्राह्मणकीय ( स० वि०। ब्राह्मणक-छ (पा ४।२।१०४ ) अर्थात् उपनयनादि संस्कारयुक्त हो कर नित्य और ब्राह्मणकसम्बन्धीय। नैमित्तिक कर्म अथवा अध्ययन और अध्यापनादि किसी ब्राह्मणकाम्या (स० स्त्री०) ब्राह्मणस्य काम्या ६-तन् । भी कर्मका अनुष्ठान नहीं करते, उन्हें ब्राह्मणव व कहते १ विप्र च्छा। २ ब्राह्मण विषय । हैं। जो ब्राह्मण हो कर ब्राह्मणके किसी भी कर्तव्यका ब्राह्मणध्न (संत्रि.) ब्राह्मणं हन्ति हन-क। ब्राह्मण पालन नहीं करते और अपनेको ब्राह्मण होनेका दावा घातक। करते हैं वे हो ब्राह्मणवुव हैं। ब्राह्मणचक्षुस् ( सं० क्ली० ) बाह्मणस्य सर्वार्थप्रकाश "सममब्रह्माणे दानं द्विगुणं ब्राह्मणव वे। कत्वात् चक्षुरिव । श्रुति और स्मृति ही ब्राह्मणके चक्ष हैं । अधीते शतसाहस्रमनन्त वेदपारगे ॥” ( मनु ५८५) भगवान मनुने लिखा है, कि अब्राह्मणको दान करने- "श्रुतिस्मृती च विप्राणां चक्षुपी देव निर्मिते। से उसका तुल्यरूप फल, ब्राह्मणब्रुवको दान करनेसे काणस्तकया होनो द्वाभ्यामन्धः प्रकीर्तितः ॥” (हारीत) उसका दूना, अधीत ब्राह्मणको दान करनेते लाख गुना ब्राह्मणचण्डाल (सं० पु०) ब्राह्मणश्चाण्डाल इव । शास्त्र- और वेदप रग ब्राह्मणको दान करनेसे अनन्त गुणफल निषिद्ध कर्मकारी अपकृष्ट ब्राह्मण । प्राप्त होता है। ब्राह्मणजात (सं० क्लो०) १ ब्राह्मणवंश सम्भूत । २ विष ब्राह्मणभोजन (संक्ली० ) ब्राह्मणानां भोजनम् । ब्राह्मण- जाति। को खिलाना। किसी दैव वा पैसा कर्म का अनुष्ठान ब्राह्मणजातीय (सं० वि० ) ब्राह्मण सम्बन्धीय। करनेसे उसके अङ्गखरूप ब्राह्मणभोजन कराना अवश्य