पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष पंचदश भाग.djvu/६३२

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६२६ उत्पत्ति हुई है, ऐसा उल्लेख मिलता है। मुखसे उत्पत्ति चातुर्यसमाज गठित होनेके साथ ही साथ व्रात्य होनेके कारण ब्राह्मण सर्व वर्णीमें प्रथम और गुरु हुए हैं। और सङ्करोंकी उत्पत्ति हुई। उपनयनादि संस्कार- पुराणक प्रसङ्गसे और भी ज्ञात होता है, कि पहले वर्जित द्विजातियां व्रात्य और जिसके भिन्न जातीय क्षत्रिय और वैश्यगण ब्राह्मणत्व प्राप्त करते थे और वे माता पिता हैं वे मिश्र वा शङ्करवण कहलाये। 'क्षत्रोपेत-ब्राह्मण' कहलाते थे * वेदादि ग्रन्थों में ब्राह्मणके यह पहले ही कहा जा चुका है, कि सबसे पहले यज्ञादिमें पौरहित्य करनेका उल्लेख पाया जाता है। मंत्रकृत् वा वेदस्तोता ऋषिगण ही बाह्म वा ब्राह्मण कह- (ऋक् १०।६८५ और ऐतरेय ब्रा० ७म पञ्चिका ) लाये थे। किसी ब्राह्मणका परिचय जानना हो, तो पहले बाह्मण द्वारा ब्राणीसे उत्पन्न सन्तान ब्राह्मह्मण होगी। उसका वेद, गोत्र और प्रवर जानना आवश्यक है। जिस ब्राह्मण यदि अनुलोम-क्रमसे होन वर्णको स्त्रीके साथ ऋषिके वंशमें जिसका जन्म है, वही पूर्वपुरुष परिचायक गमन करके उससे सन्तान उत्पन्न करे, तो वह सन्तान ऋषि हो उसका गोत्र है। ऋक्संहितामें जो ऋषि हैं, माताके होनजातित्वके कारण उसी जातिकी होगी। वौधायनादिके श्रौत प्रथमें उन ऋषियोंके नामसे ही उत्कृष्ट जाति ब्राह्मण द्वारा शूद्रकन्यासे उत्पन्न सन्तान गोत्रनिरूपित हुए हैं। वौधायन, आश्वलायन, कात्यायन, निकृष्ट होने पर भी सप्तम जन्ममें वह उत्कृष्ट जातित्व आपस्तन्व, सतग्राषाढ, भरद्वाज और लौगाक्षि आदि अर्थात् ब्राह्मणत्व प्राप्त करेगी। याज्ञवल्क्यमें लिखा है, रचित श्रीत प्रन्थों में प्रायः सात सौ विभिन्न गोत्रोंके नाम सवर्णमें भनिन्ध विवाहसे जो पुत्र उत्पन्न होता है, वह पाये जाते हैं। भारतवर्षीय ब्राह्मणोंमें वर्तमानमें प्रायः दो उसी जातिका समझा जायगा। जातिके उत्कर्षसे पचम सौ गोत्र प्रचलित हैं। प्राचीन शिलालेखोंमें अनेक लुप्त षा सप्तम जन्ममें ब्राह्मण्यलाभ है, किंतु जीविकाके गोत्रोंके प्रमाण पाये जाते हैं । 'गोत्र' और 'प्रवर' शब्द देखो। व्यतिकमसे पूर्ववत् अधर (प्रतिलोमज ) होता है। बहुत प्राचीनकालमें वेदमंत्र द्रष्टा ब्राह्मणगण भारतमें महाभारतके अनुशासनपव (अ० १४३ ) में लिखा है, कि पधारे थे। परवत्ती समयमें भी शाकद्वोपसे भारतमें ब्राह्मणधर्म अवलम्बनसे जीविकानिर्वाहकारी ब्राह्मणत्वको अनेक ब्राह्मणका आगमन हुआ। विभिन्न स्थानों के ब्राहमणों- प्राप्त होता है। बनपर्व ( २११।१२-१३ ) में ऐसा देखने का विवरण इन्हीं शब्दोंमें देखना चाहिए। . आता है कि शूदयोनिसे उत्पन्न होने पर भी कोई व्यक्ति महाराज आदिशरके यज्ञमें पश्चिमकी तरफसे पांच यदि सद्गुणोंकी सेवा करे तो उसे वैश्यत्व और क्षत्रियत्व | ब्राह्मण वुलाये गये थे। राजा बल्लालसेनने बङ्गालके प्राप्त होता है और तो क्या, एकमात्र सारल्य गुणमें। ब्राह्मणोंमें कौलिन्य मर्यादा स्थापित की । घटक देवीवरने अभिनिविष्ट होनेसे उसके लिए ब्राह्मणत्व भी लम्प हो मेल बन्धनद्वारा शिथिलप्राय कौलिन्यको पुनः गुढ़ सकता है। बनाया । भारतवर्ष में नाना श्रेणीके ब्राह्मणोंका वास है। ___* हरिवंश ११ और ३२ अ०, विष्णुपुराण ३।८।१, ४।२-३ देवल, नम्बुरि, वैदिक आदि शब्द देखो। अ० और ४।१६।२१, भागवत ६।२।२३, ६।२०।२७ और ह॥२१॥ (क्लो० ) २ मन्त्रेतर वेद-भाग, वेदका एक २१ तथा ब्रह्माण्ड, लिङ्ग और मत्स्यादि पुराणमें मी इस प्रकार हिस्सा। "तन ब्राह्मणस्य लक्षण नास्ति कुतः ? घेद- का उल्लेख पाया जाता है। विस्तृत विवरण "पुरु" शब्दमें भागानामियत्तानवधारणेन ब्राह्मणभागेम्वन्यभागेषु च लक्ष- देखना चाहिरे । णस्याव्याप्त्य-तिव्याप्तोः शोधायितुमशक्यत्वात्, पूर्वोक- • मिताक्षरामें विज्ञानेश्वरने इसकी विशद व्याख्या की है। मन्त्रभाग एका, भागान्तराणि न कानिचित् पूर्वरुदाहत्तुं १। यहां महाभारत-कारने चातुर्य समाजकी आदिम संगृहीतानि। अवस्थाकी अवतारणा की है। हम देखते हैं कि चातुर्य "हतुर्निर्वचनं निंदा प्रशंसा संशयो विधिः । समाजकी उस शैशवावस्थामें शूद्र फयप ब्राह्मण और वेद-। परक्रिया पुराकल्पो व्यवधारणकल्पना ॥" मन्त्र-प्रकाशक ऋषि कहलाते थे। (ऐतरेय बा.२३१) (ऋग्वेद भाष्योद्यात प्र०)