पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष पंचदश भाग.djvu/६३१

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ब्राममा ६२५ यदि ब्राह्मण शूद्रास्त्रीके साथ गमन करे, तो वह ब्राह्मण क्षत्रियादि त्रिवर्णके द्वारा प्रणम्य हैं। पुष्प- वृषलीपति कहलायगा। इस श्रेणीके ब्राह्मणों के श्राद्धका हस्त, पयोहस्त, देवहस्त, तैलाभ्यङ्गित-विग्रह, देवगृह- पिण्ड विष्ठा-सद्दश और तर्पण मूत्र तुल्य है, तथा उसका स्थित, औरदेव पूजाके समय, इन अवस्थाओंमें ब्राह्मणको कोटि जन्मार्जित तपस्याका फल नष्ट होता है। प्रणाम नहीं करना चाहिए। - ब्राह्मणके लिए प्रतिग्रह-निषेध -- कुरुक्षेत्र, वाराणसी, "पुष्पहस्तं पयोहस्तं देवहस्तञ्च भूसुर । वदरी, गङ्गासागरसङ्गम, पुष्कर, भास्करक्षेत्र, प्रभास, न नमेत् ब्राह मणं प्रातस्तैलाभ्यगितविग्रहम् ॥” इत्यादि । रासमण्डल, हरिद्वार, केदार, सोमतीर्थ, वदरपाचन, (पद्मप० क्रियायोग सा. २०) सरस्वती नदोतीर, वृन्दावन, गोदावरी, कौशिकी, त्रिवेणी आततायी ब्राह्मणको बध करने कुछ भी दोष नहीं और नारायणक्षेत्र आदि तीर्थों में ब्राह्मणको प्रतिग्रह न है। (यूह मवैवर्त पु० गणपति खं० २५ १०) करना चाहिए । यहां तक तो विभिन्न शास्त्रोंसे ब्राह्मणके आचार परिभाषिक महापातकी ब्राह्मण- व्यवहार और अनुष्ठ य व्रतकर्मादिका विषय लिखा गयो । "शूद्रसप्तोद्रिक्तयाजी ग्रामयाजीति कीर्तितः। देवोपजीवजीवी च देवलश्च प्रकीर्तितः ।। अब अन्यान्य विषय लिखे जाते हैं । ब्रह्मके मानस-कल्पमें मामवादि सृष्ट होनेके वाद, उनमें जाति-विभाग सङ्गठित शूद्रपाकोपजीवी यः सूपकारः प्रकीर्तितः । हुआ। भारतवर्ष के सिवा अन्याय देशके अधिवासी सन्ध्यापूजाविहीनश्च प्रमत्तः पतितः स्मृतः ।। गण एक जातिमें शामिल हैं और विभिन्न सम्प्रदायोंमें एते महापातकिनः कुम्भीपाकं प्रयान्ति ते।" विभक्त हैं। परन्तु इस हिन्दू-प्रधान भारतभूमिमें ब्राह्म- (ब्रह मवैवर्तपु० प्रकृतिखं० २७ अ०) णादि चार जातियोंका विभाग है। मध्य एशियासे जो सात शद्रोंके अधिक यजनकारीका नाम ग्रामयाजी आर्य औपनिवेशिक पहले भारतको -तरफ आये थे, उनमें हैं। ये प्रामयाजी ब्राह्मण, देवोपजीवी देवल, शद्रका इस प्रकारका वर्ण-विभाग था या नहीं, इसका कोई प्रकृष्ट पाचक ब्राह्मण और सन्ध्यावन्दनादि-विहीन प्रमत्त ब्राह्मण प्रमाण उपलब्ध नहीं है। हम ऋग्वेदके पुरुषसूक्तमें महापातकी हैं। इस श्रेणीके ब्राह्मण कुम्भीपाक नरक- में जाते हैं। (१०।१०।११-१२ ) देखते हैं, कि पुरुष विभक्त होने पर ब्राह्मण प्रसन्न-चित्तसे जो भी आशीर्वाद देते हैं, वह उनके मुदसे ब्राह्मण हुए थे। इसके अतिरिक्त याज- पूर्णस्वत्ययन है। सनेय संहिता ( १४।२८-३६ ), अथर्व वेद (१५।१०।१-३ "आशिष कत मर्हन्ति प्रसन्नमनसा शिशुम । और १६६।६), नैत्तिरोय संहिता (२११४-६ ', तैत्ति- पूर्णवस्त्ययनं स्थाधो विप्राशीर्वचनं ध्रुवम् ॥" रीय ब्राह्मण ( १।६।७ और ३११२४६३) और शतपथ- (ब्रहमवैवर्त पु० श्रीकृष्णाजन्म खं० १३ अ०) ब्राह्मणके (२।१।४।१३) सूत्र में ब्राह्मणादिकी उत्पत्तिका ब्राह्मण अपने कर्म द्वारा अपाङ्क्ते य वा पङ्क्तिपावन उल्लेख है। वेदके सिवा मनुसंहिता कूर्मपुराण और होते हैं। अपाङ्क्तय ब्राह्मण, जैसे कितव, भ्रूणहा, भागवत पुराणमें भी पुरुषसूक्तके अनुसार चार जातियों- यक्ष्मी, पशुपालक, वाषिक, गायक, सर्वविक्रयो, अगार की उत्पत्तिका विवरण लिखा है। ब्रह्माण्डपुराणमें दारी, गरद, कुण्डाशो, सोमविक्रयो, सामुद्रिक, राज (पूर्वभाग ८११५५.१६०) "सर्वभूते ब्रह्म विधमान" इस दूत, तैलिक, कूटकारक, पिताके साथ विवादकारी, अभि प्रकार चिन्तावृत्ति-धारी प्रजागण स्वयम्भू ब्रह्मा द्वारा शस्त, स्तेन, शिल्पोपजीवी, पर्वकार, सूची, मित्रद्रोहो, ब्राह्मण-रूपमें निर्दिष्ट हुए थे। विष्णु, मत्स्य और मार्क- पारदारिक, परिवित्ति, दुश्चर्मा, गुरुतल्पग, कुशीलव, एडेय पुराणमें भी ठोक ऐसा ही वर्णन पाया जाता है। देवलक और नक्षत्रजीवी आदि ब्राह्मण अपाङ्क्त य हैं । हरिवंशमें शुद्ध सस्वगुणसे, महाभारत आदिपर्वमें अर्थात् इनके साथ बैठ कर भोजन न करना चाहिए। मनुसे और शान्तिपर्व में कृष्णके मुखसे, तथा श्रीमन्द्रा- __'पङ्क्ति पावन' शब्द देखो।। गवतमें ( ३१६,२६-२७ ) विराट पुरुषके मुखसे ब्राह्मणको Vol. xv, 137,