पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष पंचदश भाग.djvu/५९६

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५६० ब्रह्मचारी यदि अकामतः ब्रह्मचारीका स्वप्नमें भो रेतःस्खलन हो। स्थलमें एकाम्न भोजनका विधान किया है । जाय, तो उन्हें स्नानके बाद सूर्यकी अर्ज ना करनी क्षत्रिय और वैश्य ब्रह्मचारियोंके लिए भिक्षाचरण विहित चाहिए और 'पुनर्मा पतु इन्द्रिय' अर्थात् मेरा वीर्य पुनः हुआ है, परन्तु एकान्न सेवनको विधि उनके लिए नहीं लौट आये, इत्यादि वेदमन्त्रका तीन वर जप करना है। ब्रह्मचारी गुरु द्वारा आदिष्ट हों या न हों उन्हें प.तव्य है। आचार्यको जिन वस्तुंऑकी आवश्य-: प्रति दिन वेदाध्ययम और गुरुके हितानुष्ठानमें यत्न- कता हो, उन वस्तुओंका आहरण और प्रति दिन वान् होना ही पड़ेगा। प्रति दिन शरीर, वाक्य, बुद्धि भिक्षान्न संग्रह करना चाहिये । जो गृहस्थ वेदा.. और मनको संयत करके कृताञ्जलि पुरसे वे गुरुके मुख- नुष्ठान-युक्त हैं, सन्तुष्टचित्तसे जो अपनी अपनो वृत्तिसे की ओर दृष्टि रख कर खड़े होंगे। ब्रह्मचारी सर्वदा कालयापन करते हैं, ब्रह्मच रोको प्रतिदिन शुचितासे गुरुके समक्ष उनसे होनाग्नभोजन और हीन वस्त्र परि- उनहींके घरसे भिक्षा संग्रह करना चाहिए । गुरुके वंशमें, धान करेंगे। गुरुसे पहले उठना और गुरुके पश्चात् शयन अपने जातिकुल में अथवा मातुलादि बन्धु-कुलमें भिक्षा करना भी उनके कर्त्तव्यमें शामिल है। पड़े या बैठे हुए, करना ब्रह्मचारीके लिए उचित नहीं है हां, यदि भिलोचित भोजन करते हुए अथवा दूरसे खड़े हुए या दूसरी तरफ गृहस्थ न मिले, तो पूर्व पूर्व कुल छोड़ कर वादके मातु- मुंह किये गुरुको आशा ग्रहण काना वा उनसे सम्भा- लादि कुलसे भिक्षा आरम्भ करना चाहिए। और पूर्वोक्त : षण करना उचित नहीं। गुरुके समक्ष शिष्यका आसन भिक्षोचित सभोका यदि अभाव हो, तो संयतेन्द्रिय और और शय्या सर्वदा अनुन्नत होना चाहिए । गुरुके भिक्षावाश्यवर्जन अर्थात् मौनो हो कर प्राम भिक्षा अर्थात् पोछे भी, उपाध्याय-आचार्यादि पूजनीय वाक्य-विहोन चातुर्वणके निकट भिक्षा करनी चाहिए ; परन्तु अभिशप्त . गुरुनाम उच्चारण नहीं करना चाहिए। उपहास-बुद्धिसे भौर महापातकादि-प्रस्त व्यक्तिके यहां कभी भी भिक्षा भो गुरुके गमन और कथनादिका अनुकरण करना ग्रहण न करना चाहिए। ब्रह्मचारीको चाहिये, कि दूरसे उचित नहीं है । ब्रह्मचारो किसी स्थानमें भी गुरुके समिधकाष्ठ आहरण करके अनावृत स्थानमें रखें और • साथ एकत्र न बैठे और गुरुको सवर्णा स्त्रोको गुरुकी मिरलस हो कर सायं एवं प्रातःकालमें समिधकाष्ठ द्वारा तरह पूजा करें तथा असवर्णा स्त्रोका प्रत्युत्थान और प्रज्वलित अग्निमें होम करें। ब्रह्मचारी यदि अनातुर अभिवादन द्वारा सम्मान करें। परन्तु वे गुरुपत्नीको भयस्थामें निरन्तर सप्तरात्रि भिक्षातरण तथा सायं और तैलमदन, गानमर्दन; केश-संस्कार वा स्नानादि नहीं प्रातःकालमें समिधकाष्ठ द्वारा होम न करें, तो उनको करा सकते। युवा ब्रह्मचारो तरुणो गुरुपत्नीको कभी भवकीणी प्रायश्चित्त लेना पड़ता है। प्रतिदिन भिक्षा भी पाद-ग्रहण द्वारा अभिवादन नहीं कर सकते। इस चरण करना ब्रह्मचारीका कर्तव्य है, किन्तु भिक्षान्न एक लोकमें मनुष्योको दूषित करना ही स्त्रियोंका स्वभाव है। ही गृहस्थके यहाँसे संग्रह करना उचित नहीं। भिक्षान्न इस कारण पण्डित अर्थात् विवेकी पुरुषोंको त्रियोंसे द्वारा उपलब्ध ब्रह्मचारोको उपजीविकाको ऋषियोंने सावधान रहना चाहिए । इन्द्रिया अतिशय बलवान हैं, उपवाससम पुण्यजनक बतलाया है। इसलिए विद्वान् अविद्वान् सभीके लिए सावधानता ब्रह्मचारी देवोदेशसे अनुष्ठित ब्राह्मणभोजनमें निमं. आवश्यक है। त्रित हो कर छानुसार मधुमांसादि वर्जित व्रतवत् अन्न ब्रह्मचारीको सूर्योदय वा सूर्यास्तके समय कदापि और पिनादिके उद्देशसे श्राद्धम अभ्यर्थित हो कर आर . सोते न रहना चाहिए । क्योंकि, यह उनके लिए सम्ध्यो- ण्यनीवारादि ऋषिवत् अन्न ग्रहण कर सकते हैं। इस पासनाका समय है। शान-कृत हो वा अज्ञान-कृत, उन्हें प्रकारके भोजनसे ब्रह्मचारीको एकान्न सेवनका दोष वा उक्त समयमें सोते रहनेके कारण सारा दिन उपवास. भिक्षाव्रतमें हानि नहीं होती । मन्वादि ऋषियोंने प्रायश्चित्त करना चाहिए। यदि वे प्रायश्चित्त न करें, ब्राह्मण और ब्रह्मचारीके प्रति इस प्रकार श्राद्ध. तो उन्हें महापातकका दोष लगेगा।