पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष पंचदश भाग.djvu/५६८

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५६२ बौद्धधर्म कलिङ्गसे एकबारगी अन्तर्हित हो गया है तथा ब्राह्मण : बौद्धों के इस पोजम'को विशुद्ध कहना बाहुल्य है। प्राधान्यनिर्देशक किसो हिंदूशास्त्र में शून्यवाद स्वीकृत नहीं पहले ही कहा जा चुका है, कि महायानोंने निरत्नमेंसे हुआ है, तो भी आज तक वङ्गउत्कलवासीके इतर जन-। एक (सङ्घ )-को पुरुषमूर्ति माना था जो अब भी बोध- साधारणके मध्य शम्यवादका प्रभाव विलुप्त नहीं हो सका गयामें विद्यमान है। गौड़वङ्गाके धर्मोपासकोंके साधा- है, केवल शून्यपुराण ही नहीं, वरन् बहुत धर्म मङ्गल तथा रणतः इस मूर्तिका ग्रहण नहीं करने पर भी धर्म मङ्गल- डोम हाड़ी प्रभृति नीच जातिके धर्मविश्वासमें वही शून्य- समूहके नायक प्रसिद्ध धर्म भक्त लावसेनको राजधानी वाद स्पष्टरूपसे वर्तमान है। वङ्गके उक्त साम्प्रदायिक मैनागढ़के समीप जो धर्मस्तत्व पाया गया है, मङ्गलपंथ या नोच जातिका ही विश्वास नहीं है, वरन् उसमें बुद्धगयाकी सङ्घमूर्तिका स्तव इस प्रकार मयूर-भञ्जके दुर्भेद्य जङ्गलावृत प्रदेशसे आविष्कृत सिद्धांत- है, - उदुम्बर, अमयपटल, अनाकार-संहिता प्रभृति उत्कल प्रथ । ">वंतवस्त्र श्वेतमाल्यं श्वेतयज्ञोपवीतकम् । से भी महायान धर्म को विगत स्मृति पाई गई है। श्वेतासनं श्वेतरूपं निरञ्जनं नमोऽस्तु ते ॥" सिद्धांत-उदुम्बरके प्रारम्भमें ही यह श्लोक देखा जाता । उक्त आदर्श रख मयूरभञ्जके सिद्धांत-उडुम्वर प्रथमें धर्म और सड़को एकत्र लक्षा करके प्रसिद्ध "अनाकाररूपं शून्य शून्यं मध्ये निरञ्जनः । विष्णुका ध्यान कल्पित हुआ है। यथा- निराकारमङ्गज्योतिः संज्योतिः भगवानयम् ॥" ओं शुक्लाम्बरधरं देवं शशिवर्णं चतुर्भुजम् । धर्म पूजाप्रवर्तक रमाई पण्डितके शून्यपुराणमें भी प्रसन्न वदनं ध्यायेत् सर्वविघ्नोपशान्तये ॥" पही श्लोक है, जहां पर उक्त ध्यान है, उससे पहले ऐसी धर्म- "शून्यरूपं निराकार सहस्रविघ्नविनाशनम् । गायत्री देखी जाती है,--- सर्वपरः परोदेवः तस्मात्त्वं वरदो भव ॥" "ओं सिद्धदेवः सिद्धः धर्मो वरेण्यमस्य धीमहि । सुतरां देखा जाता है, कि दोनों प्रथकारोंका लक्षा भर्गदेवो धीयो यान सिद्धधर्म प्रचोदयात् ।।" शन्यवाद है तथा उद्देश्य भी एक है। (सिद्धान्त-उड़म्बर १२ अ.) नेपाली बौद्धोंके स्वयंभूपुराणके प्रारंभमें भी ऐसा सिद्धान्त-उडम्बरमें अज्ञातपूर्व कई एक आख्या. ही श्लोक है,- यिकाएं मिलता हैं जो पौराणिक-सो प्रतीत होती हैं। "नमो बुद्धाय धर्माय सङ्घरूपाय वै नमः। कित आश्चर्यका विषय है, कि क्या बौद्ध क्या हिन्दू किसो खयम्भुवे वियच्छान्तभानवे धर्मधातवे ॥ (१) पौगणिक ग्रन्थमे ऐसा आख्यायिकाका समर्थन नहों मस्ति नास्ति स्वरूपाय ज्ञानरूपस्वरूपिणे । मिला। इससे जान पड़ता है, कि सिद्धान्त-उडुम्बरको शून्यरूपस्वरूपाय नानारूपाय वै नमः ॥ (३)" रचनाके समय अर्थात् दो वर्षसे भो पहले बावरी समाज रमाई पण्डितकी पद्धतिमें भी देखा जाता है, कि | मे असा प्रवाद प्रचलित था अथवा प्रवादसमर्थक यदि उस महाशून्यमूर्ति "ललित अवतार"-रूप धर्म से आद्या कोई ग्रन्थ ररता तो उसोके अनुसार उडम्यरकार बावरी शक्ति पार्यतीका जन्म है और बाद उस पार्वतीसे ब्रह्मा. जातिका परिचय दे जाते। निराकारके दक्षिण विष्णु और महेश्वरकी उत्पत्ति हुई है। ऊरुसे विप्र और मुखसे विश्वामित्रका जन्म हुआ था तथा धर्म पूजाकी पद्धतिमें "धा धीं धं धर्माय नमः" इस उन्हींसे बावरी जातिको उत्पत्ति है। इस निराकरणके प्रकार शन्यमूर्ति धर्मराजका बीज निर्दिष्ट है। मयूर के दाहिने अङ्गसे पद्मालया नामक एक देवीने जन्म लिया। सिद्धांतउडम्बर प्रथमें 'भो ध्लीं शून्यब्रह्मये नमः' इस शून्य- इसके गर्भ और विश्वामित्रके औरससे अनन्तकाण्डी रुप निरञ्जनका वोज देखा जाता है। किसी हिन्दूशास्त्र- नामक वावरीकी उत्पत्ति हुई जो हुली बावरी कहलाये। में प्रयको शून्य नहीं बतलाया है, अतएव महायान दुलिखावरी तथा उनके वंशधरगण ब्राह्मणोंके साथ