पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष पंचदश भाग.djvu/५४३

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बौद्धधर्म ५३७ भारतीय संन्यासधर्म। __ अनुसरण कर बौद्धने सप्ताहमें एक दिन धर्मकार्यके लिए अनेक देशोंमें देखा जाता है, कि समयानुसार मनुष्य निर्दिष्ट किया था। वुद्धदेवने बहुत कम नोति या विधि चारों ओर सांसारिक और सामाजिक भोगविलासको बनाई थी। अनेक समय वे प्रचलित साधारण मतके व्यव- बहुतायतसे विरक्त हो अथवा अपने मायाजीवनमें जिस हारमें जो अदूषणीय समझते , उसे हो ग्रहण करते प्रियतमा आशाको ले कर जीवन धारण करते थे, उससे थे। वे नियम या विधानकी सृष्टि करने के लिए विशेष निराश हो कर जब सांसारिक सुखकी असारता और उत्सुकता नहीं दिखलाते थे तथा नियमरक्षामें सर्वदा अनित्यता समझ सकते हैं, तब वे इस कपटतापूर्ण : लगे रहते थे। प्रातिमोक्ष। सांसारिक सुखका परित्याग कर प्रकृत तथा पवित्र सुखा- न्वेषणके लिए निर्जन प्रदेशमें अवस्थान पूर्णक धर्म और सङ्घके जिन सब विधान द्वारा मण्डलीका शासन ईश्वरचिन्तारूप पवित्र कायमें जीवन विताते हैं। भारत- या शास्तिविधान होता था, उसका नाम "पातिमोकख' वर्षके प्राकृतिक सौन्दर्य, प्राचीन आर्यऋषियोंके अतीत (प्रातिमोक्ष) था। पालि ग्रन्थमें जिस पातिमोक्खका जीवन, भारतवासीको चिन्ताशीलता और अत्यधिक विधान है, वही सर्व प्राचीन है और वही बौद्ध भिक्षओं- परिमाणमें धर्मानुराग प्रभृतिके कारणसे इस संन्यास-धर्म- की दण्डविधि है । मभी बौद्धमम्प्रदायका विधान ऐसा ग्रहणको पिपासा भारतवर्णमें ही बहुत देखी जाती है।

ही है। पर उसकी संख्यामें कमी या वेशी अवश्य देखी

___ अति प्राचीनकालसे भारतवर्णमें जिन चार आश्रमो- | जाती है। पालिग्रन्धके मतमे संन्यासियोंके प्रातिमोक्षकी की प्रथा प्रचलित है, उन्हीं में सन्यासधर्मका बीज निहित । ' संख्या २२७, चीनदेशमें प्रकाशित धर्मगुप्त सम्प्रदायमें है। ब्रह्मचर्मकी प्रथम अवस्थामें जब गुरुगृहमें रहना : २५०, तिब्बतमें २५३ और महाव्युत्पत्तिमें २५६ है। पड़ता था, उस समय संन्यासधर्मकी समस्त कठोरताका बुद्धदेवका आदेश था, कि प्रति मास दो बार अर्थात् प्रत्येक पक्षमें एक बार उस नियमावलीको पढ़ना चाहिए। प्रतिपालन करना होता था। इन्हीं सब प्रथाओंको बौद्ध- भिक्षओंने ग्रहण किया है। चार भिक्षक जिस जगह इकट्ठे होते थे, वहीं इसकी आवृत्ति होती थी। प्रत्येक विधानकी आवृत्ति समाप्त ब्रह्मचारीकी इच्छा होने पर आजीवन शिष्य भावसे गुरुगृहमें रहना पड़ता था। ऐसे ब्रह्मचारी और बौद्ध- होने पर पाठक पूछने थे, क्या किसी भिक्ष ने इसका भिक्षु के मध्य कोई पृथक्ता नहीं देखो जाती । यति, उल्लङ्घन किया है ? उलङ्घन करने पर उन्हें खुले रूपमें समामें कहना पड़ता था। मुक्त, संन्यासी और परिव्राजक इत्यादि नामसे भी ये प्रातिमोक्षके सिवा भिक्ष ओंके प्रतिपाल्य और भी कितने परिचित है। नियम हैं, जिनके नाम धृताङ्ग या धूतगुण हैं। दक्षिण यद्यपि बौद्धधर्मके आविर्भावका ठोक समय निर्देश प्रदेशीय वौद्धोंके ग्रन्थमें इनकी संख्या १३ और उत्तर प्रदे- करना दुशवार है, किन्तु सम्राट अशोकके समयमै जो शीय बौद्धके मतमें १२है। नीचे सशिन विवरण दिया बौद्धसङ्क प्रतिष्ठत और बहुत से धर्मग्रन्थ लिपिवद्ध हुए। जाता है। थे, इसमें तनिक भो सन्देह नहीं । इसका प्रमाण अशोक- (१) पांशुकुलिक --अर्थात् छिन्न तंत्र खण्ड दाग के अनुशासनसे ही मिलता है। इससे जाना जाता है, :, वसन बनाना चाहिए । मभी भिक्ष इस नियममा प्रति- कि अशोकके राजत्वके बहुत पहलेसे ही बौद्धधर्मने पालन नहीं करते, केबल आरण्यक भिक्ष हो इसका प्रधान्य लाभ किया था। बौद्धधर्मग्रन्थमें निग्रंन्थ और ' विशेष भावसे पालन करते हैं। आजीवक सम्प्रदायका बारम्बार उल्लेख देखा जाता है (२) तेचिवरिक ( वैचीवरिक ) प्रत्येक भिक्षु को और उनके साथ बौद्धोंका विरोधविषय भी उसमें वर्णित : तोनसे अधिक परिधेय नहीं रहने चाहिये। है। इससे मालूम होता है, कि उक्त तोनों सम्प्रदाय हो : (३) पैण्डपातिक--दरवाजे दरवाजे भिक्षा द्वार । उस समय वर्तमान थे। इन्हीं सब सम्प्रदायके द्रष्टान्तका खाद्य संग्रह करना उचित है। Vol. xv. 135