पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष पंचदश भाग.djvu/४३७

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बुद्धदेव

यक राग, तृष्णा या पिपासाकी निवृति नहीं हुई है, वह था, कि सांस ऊपरकी ओर चली और मस्तक भेद कर कभी भी आन्तरिक तथा शारीरिक दुःखसे निमुक्त नहीं बाहर निकल गई : बाद उन्होंने आहारका नियम कर औसकता। यदि कोई मनाय आग जलाने की इच्छासे दिया और अन्तमें प्रतिदिन वे एक चावल खाने लगे। भी गो लकड़ीको पानीमें डुवो रखे और फिर उसी धीरे धीरे उनका शरीर क्षीण होने लगा। कुछ दिन बाद लकड़ीको भीगी अरणीसे रगड़े, तो वह उससे कभी . वे यथाविहित आसन पर बैठ कर ललितव्यूह नामक भी आग नहीं निकाल सकता। उसी प्रकार जिसका समाधिमें निमग्न हुए । बोधिसत्त्व जिस समय नैरञ्जना चित्त रागादि द्वारा अभिभूत है, वह कदापि ज्ञानज्योतिः : नदीके किनारे बोधिवृक्षके नीचे योगासन पर आसीन हुए लाभ नहीं कर सकता। यही उपमा बोधिसत्त्वके उस समय उन्होंने कहा था, 'इस आसन पर मेरा शरीर मनमें पहले पहल उदित हुई। बाद उन्होंने सोना, शकता लाभ क्यों न करे और मेरा त्वक, अस्थि तथा कि जो भीगी लकड़ीको जमीन पर रख कर भीगी मांस यहीं पर विलीन क्यों न हो जाय, किंतु जव अरणीसे उसे रगड़ता है, वह भी जिस प्रकार अग्नि तक सुदुर्लभ बुद्धत्व लाभ न कर सकृगा तब तक उत्पादन करने में समर्थ नहीं होता: उमी प्रकार मैं कदापि इस आसन परमेन डिग्रगा। (नलितविस्तर) जिसका हृदय रागादिद्वारा अभिषिक्त है, उसे भी ज्ञान- बुद्धचरितकाथ्यके व मनमें लिखा है, राजर्षिवंशो ज्योति नहीं मिलती ; यही दूसरी उपमा हुई। अनन्तर द्भव महर्षि वाधिसत्त्व जद परमज्ञान लाभ करने के लिए उनके मन में यह उत्पन्न हुआ, कि जो मूग्वो लकड़ीको दृढ़प्रतिज्ञ हो बोधिवृक्षके नीचे बैठे, तब संसारके सभी जमीन पर रख कर सूखी अरणीसे रगड़ता है, वह उससे मनुष्योंके आनन्दकी सोमा न रही, कितु सद्धर्मका शत्र अनायास आग जला सकता है। इसी तरह जिसके मार डर गया। मनुष्य जिसे कामदेव, चित्रायुध और चित्तसे रागादि बिलकुल चला गया है, वही मिर्फ पुष्पशर कहते हैं, पण्डितोंने उपही कामराज्यका अधिपति ज्ञानाग्नि लाभ करने में समर्थ होता है। यही तीसगे मुक्तिका विद्वे पो मार बनलाया है । पिलास, हर्ष और दर्प उपमा कहलाई। नामके तीन पुत्र तथा रति, प्रीति और तृष्णा नामकी तीन ___ इसके बाद उन्हें गया प्रदेशमें उरुविल्वा ग्रामके कन्याने मारसे पूछा, 'हे पितः! आज आप इतने उदास समीप नैरञ्जना नामकी एक नदी मिली। उस रमणीय क्यों हैं ?' इस पर माग्ने कहा, 'शाक्य मुनि दृढ़प्रतिज्ञा- नदीके किनारे बैठ कर वे सोचने लगे, कि वर्तमान रूप धर्म, सत्त्वरूप आयुध तथा बुद्धिा वाण धारण युगमें जम्बूद्वीप पांच प्रकारके पापोंका कलुपित है। कर मेरा सारा राज्य जीतनके लिए बोधिवक्षके नीचे अभो मैं जम्बूद्वीपके मनुष्योंको किस प्रकार धर्मकार्य में बैठे हैं ; इसी हे तु मेरा मन विचलित हो गया है। यदि अभिनिविष्ट करू', यही मेरा चिन्तनीय विषय हैं। वे मुझे पजन कर संमार मोक्ष धर्म का प्रचार करेंगे, इस प्रकार सोचते हुए बोधिसत्त्व छः वर्षवाली तो मैं राज्यसे च्युत हो जाऊंगा नथा कन्दपको वृत्तिका तपस्या प्रवृत्त हुए । सबसे पहले उन्होंने आस्फा. भी लोप हो जायगा। अतएव जब तक वे दिव्यचक्ष, नक ध्यानका अनुष्ठान किया। जिस प्रकार बलवान् प्राप्त न करें और मेरे ही राज्यमें रहे. तब तक मैं उनको मनुष्य दुर्बलके ऊपर अनायास ही शासन कर सकता | उच्छिन्न कर डालूगा । जिम प्रकार नदीका वेग बढ़ है, उसी प्रकार वे चित्त तथा देहको संयत करने लगे। कर पुल तोड़ देता है, मैं भी उसी प्रकार उनका भेद जिस समय बोधिसत्व उक्त ध्यानमें निमग्न थे, उस करू'गा।' वाद मनुष्यहृदयका अस्वास्थ्यकारी मार समय उनके मुंह और नाकसे सांसका आना जाना तो पुप्पमय धनुष और मोहोत्पादक पांच वाण ले कर अपने बिलकुल बन्द था, परंतु उनके कर्णछिद्रसे बड़ी आवाज पुत्र तथा कन्याके साथ उक्त वृक्षके नीचे उपस्थित हुए। निकलने लगी थी। धीरे धोरे वह छिद्र भी बन्द हो अनंतर मार धनुपके अग्रभाग पर बायां हाथ रख गया। मुह, नाक और कानके छेदोंका बन्द होना ही प्रशांतचित्तसे योगासन पर बैठा और भवसागरके पार-