पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष पंचदश भाग.djvu/४३३

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बुद्धदेव ४२७ पूर्वोक्त कोलियवंशकी किसी कन्याके साथ उनका निम्न लिखित चौंसठ प्रकारको लिपि सीखी थी। विवाह हुआ। सुभूतिके माया, महामाया, अतिमाया, यथा--ब्राह्मी, खरोष्ट्री. अङ्गलिपि, पुष्करसारी बङ्ग- अनन्तमाया, चूलीया, कोलोसोवा तथा महा प्रजावती, लिपि, मगधलिपि माङ्गल्यलिपि, मनुष्यलिपि, अंगु- नामको सात कन्या उत्पन्न हुई। पहले ही कहा जा चुका लीयलिपि, शकारिलिपि. ब्रालिपि, द्राविड़लिपि, है, कि सिंहहनु कपिलवस्तुके सिंहासन पर अधिष्ठित थे। किनारीलिपि, दक्षिणलिपि, उग्रलिपि. संख्यालिपि. उनके शुद्धोदन, शुक्लोदन, धौतोदन और अमृतोदन. अनुलोमलिपि, अद्ध धनुलिपि, दरदलिपि, खास्यलिपि, नामक चार पुत्र तथा अमिता नामकी एक कन्या थी। : नोनलिपि, हनलिपि, मध्यक्षरविस्तरलिपि, पुष्पलिपि, सिंहहनुके मरने पर शुद्धोदन कपिलवस्तुके सिंहासन देवलिपि, नागलिपि. किन्नरलिपि, महोरगलिपि, असुर- पर बैठे। पूर्वोक्त देवदहके राजा सुभूतिके जो पांच लिपि, गरुड़लिपि, मृगचकलिपि, चक्रलिपि, वायुमरु- कन्याए थीं उनमेंसे माया और महाप्रजावतीको लिपि, भौमदेवलिपि, अन्तरीक्षदेवलिपि, उत्तरकुरुद्वीप- शुद्धोदनने व्याहा। लिपि, अपरगौड़लिपि, पूर्व विदेहलिपि, उत्क्षेपलिपि, शाक्यबुद्धकी जीवनी । निक्षेपलिपि, विक्षेपलिपि, प्रक्षेपलिपि, सागरलिपि, बज्र- वैशाख मासकी पूर्णिमा तिथिको * मायादेवीके - लिपि, लेग्वप्रतिलेखलिपि, अनुद्र तलिपि, शारंगवतलिपि, गर्भका सञ्चार हुआ। तदनंतर दश महोनेके बाद माया- ' गणनावर्तलिपि, उत्क्षेपावतलिपि, अध्याहारिणीलिपि, देवीने कपिलवस्तु नगरके समीप लुम्बिनी नामक परम सर्वगत्रसंहारिणीलिपि, विद्यानुलोमालिपि, विमिश्रित. रमणीय उद्यानमें एक पुत्र प्रसव किया। पुत्रक उत्पन्न : लिपि, ऋषितपस्तना, रोचमाना, धरणीप्रक्षालिपि, होते ही शुद्धोदन सर्वार्थ संसिद्ध हुए थे, इसीलिए उन्होंने सर्वोषधिनिष्यन्दालिपि, सर्वमारसंग्रहणी औरः सर्गभूत- उसका नाम सर्वार्थसिद्ध वा सिद्धार्थ रखा । सिर्द्धार्थ के : सतग्रहणी । जन्म लेनेके सात दिन बाद हो मायादेवो इस लोकसे धीरे धीरे उन्होंने नाना प्रकारकी विद्या मीख ली सिधार गई। कुमारके पालन पोषणका भार उसकी और वेद तथा उपनिषदमें विशेष पाण्डित्य लाभ किया ! मासी महाप्रजावती गौतमीके हाथ सौंपा गया। कुछ दिन बाद सिद्धार्थका लिखना पढ़ना समाप्त हुआ बाल्यजीवन । और वे राजधानी कपिलवस्तु लौटे । शुद्धोदनने दण्ड- हिमालय पर्वतके पास ही असित नामक एक महर्षि पाणि शाक्यको कन्या गोपके साथ उनका विवाह कर वास करते थे। इस समय वे अपने भांजे नरदत्तके दिया । सिद्धार्थने विवाहके समय वेद, व्याकरण, निरुक्त, साथ कपिलवस्तु नगर पधारे। सिद्धार्थ में बारह छन्दः, शिक्षा, गणित, सांख्य, योग, वैशेषिक इत्यादि प्रकारके महापुरुष लक्षण और अस्सी प्रकारके अनुव्यंजन शास्त्रोंमें विशेष पारदर्शिता दिखाई थी। देख कर उन्होंने शुद्धोदनसे कहा, 'यह बालक समारा- बचपनसे ही सिद्धार्थको संसारसे वैराग्य उत्पन्न श्रममें अवस्थान करे, तो राजचक्रवत्ती अथवा यदि गृह- हुआ था। जिस समय वे वर्णमाला सीखते थे उसी त्यागी हो, तो सम्यक सम्बोधि प्राप्त करेगा।' वाद ऋषि समय आकार उच्चारित करते ही 'अनित्यः सर्वसंसार.' असित अपने आश्रमको चल दिये। ऐसा वाक्य उन्हें सुनाई पडा था । एक दिन वे कृषि- कुछ दिन बाद सिद्धार्थ गुरुके निकट भेजे गए। ग्राम देखने गए और वहीं पर एक वृक्षके नीचे अकेले बैठ उन्हें विश्यामिन नामक उपाध्यायसे नानादेशीय लिपि- कर ध्यानमग्न हुए। शिक्षा मिली। गुरुके यहां जानेके पहले ही उन्होंने मंसारवैराग्यका कारण । अनन्तर एक दिन उन्होंने उद्यान देखनेकी इच्छा प्रकट

  • यह वृत्तांत ललितविस्तर, बुद्धचरितकाव्य, सकोजाछुरिचु, करते हुए अपने सारथिसे रथ तैयार करनेको कहा।

ग्यसोई रोलप इत्यादि ग्रंथके अवलम्ब पर लिखा गया है। सारथिने भी वैसा ही किया। रास्तेमें एक जराजीणं वृद्ध